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मतभेद रहा है । रुद्रट ने वृत्ति को समास के श्राश्रित माना है और समासयुक्त पद - सघटना को उसका आधार स्वीकार किया है :
नाम्नां वृत्तिद्वेधाभवति समासासमाभेदेन ।
श्रानन्दवर्धन ने थोडा और व्यापक रूप देते हुए उसे शब्द - व्यवहाररूप माना है । परन्तु श्रागे चलकर मम्मट ने फिर उद्भट के अनुसरण पर उसे नियतवर्णव्यापार मात्र ही स्वीकार किया है । और बाद में चलकर तो वृत्ति का रीति में अंतर्भाव ही हो गया ।
अर्थ-वृत्ति उपयुक्त
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दो प्रकार की वृत्तियो में पहली का रीति से निकट सम्बन्ध नहीं है : इनका प्रयोग प्रायः नाटक के प्रसग में ही होता हैनाज उपन्यास के क्षेत्र में भी इनकी सार्थकता हो सकती है । कायवाङ्मनसां चेष्टा (अभिनवगुप्त) होने के कारण इनकी परिधि अत्यंत व्यापक है । रीति का सम्बन्ध जहां वाणो से ही है वहां इनका सम्बन्ध शारीरिक तथा मानसिक व्यापारो से भी है । अर्थ-वृत्ति का सम्बन्ध चरित्र - विधान तथा व्यक्तित्वचित्रण से है : रीति वचन -रचना का प्रकार मात्र है। हां दोनों के मूल मे रसानुकूल्य का आधार होने के कारण रस के सम्बन्ध से उनका पारस्परिक सम्बन्ध स्थिर किया जा सकता है । इस दृष्टि से कैशिकी पांचाली के समानान्तर है, सात्वती और आरभटी गौडाया के, और भारती वदर्भी केभरत ने यद्यपि केवल शब्द-वृत्ति मानते हुए उसका क्षेत्र अत्यत सीमित कर दिया है फिर भी परवर्ती श्राचार्यों ने उसकी सत्ता सर्वत्र मानी है : वृत्ति: सर्वत्र भारती (शारदातनय ) ।
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वर्ण-वृत्ति : दूसरी वृत्तियों का — उपनागरिका, परुषा तथा कोमला -रीतियों से इतना प्रत्यक्ष तथा घनिष्ठ सम्बन्ध है कि प्रायः उनके विषय भ्रान्ति हो जाती है। इस विषय में श्राचार्यों के तीन मत हैं :
(१) वृत्ति की सत्ता रीति से स्वतंत्र है । उद्भट ने केवल वर्ण-व्यवहार रूप वृत्तियों का ही विवेचन किया है । रुद्रट ने भी समास को आधार मानते हुए वृत्ति का रीति से ईषत् पृथक उल्लेख किया है। उधर आनन्दवर्धन तथा अभिनव में भी दोनों का पृथक वर्णन है— यद्यपि आगे चलकर आनन्दवर्धन ले वृत्ति को शब्द - व्यवहार मानकर वृत्ति और रोति की एकता स्वीकार करली है ।
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