________________ सूत्र 87] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [359 'मन्दं मन्द नुरति पवनः' इत्यत्र मन्द मन्दं इत्यप्रकारार्थे भवति / प्रकारार्थत्वे तु 'प्रकारे गुणवचनस्य' इति द्विवंचने कृते कर्मधारयवद्भावे च मन्दमन्दमिति प्रयोगः / मन्द मन्दं इत्यत्र तु नित्यवीप्सयोरिति द्विर्वचनम् / अनेकभावात्मकस्य नुदेर्यदा सर्वे भावा मन्दत्वेन व्याप्तुमिष्टा भवन्ति तदा वीप्सेति // 86 // न निद्राद्रुगिति भष्भावप्राप्ते. / 5, 2, 87 / 'निद्राद्रुक-काद्वैवच्छविरुपरिलसद्घर्घरो वारिवाहः / ' इत्यत्र 'निद्राद क' इति न युक्त.। एकाचो वशो भए' इति भण्भाषप्राप्तेः / अनुप्रासप्रियस्त्वपत्रंशः कृतः / श्र८७॥ [अष्टा० 8, 1, 11 ] इस [ सूत्र ] से [ गुणवाचक 'मन्द शब्द को द्विवचन करने पर [ उस 'प्रकारे गुणवचमस्य' सूत्र के 'कर्मधारयवदुत्तरेषु' अष्टा० 6, 1, 11 इस सूत्र के अधिकार में होने से कर्मधारयवद्भाव [ कर्मधारय समास के समान कार्य ] होने से [ सु आदि विभक्ति लोप होकर ] 'मन्दमन्द' यह प्रयोग होगा।'मन्द मन्द प्रयोग नही बनेगा]। 'मन्द मन्द' इस कालिदास के प्रयोग ] में तो 'नित्य वीप्सयो'[अष्टा० 8, 1, 4 ] इस [ सूत्र ] से द्विवचन हुआ है ['प्रकारे गुणवचनस्य' से नही]। [अनेकभावविषय व्याप्त इच्छा वीप्सा ] अनेक भावात्मक [अनेक पदार्थों से सम्बद्ध] नुद् [णु प्रेरणे] धातु के [ सम्बद्ध ] सव पदार्थों में [एक साथ ] जब व्याप्ति इष्ट हो तब 'वोप्सा कहलाती है। [यह वीप्सा का लक्षण है / यहां वीप्सा में द्विवंचन हुआ है। अतएव कर्मधारयवद्भाव न होने से विभक्ति लोप प्रादि नही होता है। अतः 'मन्दं मन्दं नुदति पवन' यह प्रयोग बन जाता है। ] // 86 // "निबाहुक्' यह प्रयोग उचित नहीं है / [ 'एकाचो बशो भए झपन्तस्य स्थ्वोः ' अष्टा० 8, 2, 37 इस सूत्र से ट के स्थान पर घरूप] भए भाव की प्राप्ति होने से। [निद्राघ्र प्रयोग होना चाहिए। ऊपर गड़भाड करता हुआ राक्षस के समाम [ भयंकर ] बादल निद्रानाशक है [ सोने नहीं देता है। यहा [ इस उदाहरण में ] 'निद्रानुक् यह [प्रयोग] उचित नहीं है। 'एकाचो वशो भए ['एकाचो वशो भए प्रपन्तस्य स्वो.' अष्टा० 8, 2, 37] इस [ सूत्र] से भ भाव [द के स्थान पर ध] के प्राप्त होने में [निद्राध्रुव प्रयोग होना चाहिए था। परन्तु ] अनुप्रामप्रिय [कवियो ] ने [ उन शब्द को ] विगाड [कर निद्राद्रुक कर दिया है / / 87 //