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सूत्र ६१] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[३४३ बौद्धस्य प्रतियोगिनोऽपेक्षायामप्यातिशायनिकास्तरवादयो भवन्ति । घनतरं तमः, बहुलतरं प्रेम इति ।। ६० ।।
कौशिलादय इलचि वर्णलोपात् । ५, २. ६१ ।
'कौशिलो' 'वासिल' इत्यादयः कथम् ' आह । कौशिकवासिष्ठादिभ्यः शब्दभ्यो नीतावनुकम्पायां वा 'घनिलचौ च" इति इलचि कृते, 'ठाजादावूवं द्वितीयादचः इति वर्णलोपात् सिद्धयन्ति ॥ ६१॥
'बलवत्तमः' आदि तर तमप् प्रत्ययान्त प्रयोग होते है । परन्तु कहीं-कहीं शब्दतः उपात्त न होने पर भी ] बुद्धि निष्ठ प्रतियोगी को अपेक्षा में भी अतिशयार्यक तरप आदि [प्रत्यय होते है । जैसे 'घनतर' अन्धकार, अथवा बहुलतर' प्रेम है । [ यहा किसकी अपेक्षा 'धनतर' अथवा किसको अपेक्षा 'बहुलतर है यह बात शब्दतः उपात नहीं है। परन्तु 'इदं धनं, इदं च घन, इदमनयोरतिशयेन घनमिति धनतर' इस रूप में वृद्धिनिष्ठ प्रतियोगी की अपेक्षा में घनतर शब्द का प्रयोग हुआ है ] ॥ ६ ॥
कौशिल प्रादि [शब्द 'घनिलचौ च' अष्टा० ५,३,७९ सूत्र से] इलच् [प्रत्यय ] होने पर ['गजादावूवं द्वितीयादचः' अष्टा० ५, ३, ८३ सूत्र से कौशिक शब्द के द्वितीय अच् से परे 'क' इसका, और वासिष्ठ शब्द के द्वितीय अच् से परे 'ठ' इस ] वर्ण के लोप से [ और 'यस्येति च' अष्टा० ६, ४, १४८ सूत्र से इकार का लोप होकर 'कौशिल.', 'वासिल.' आदि शब्द सिद्ध होते है ।
['अनुकम्पित. कौशिक , कौशिलः' 'अनुकम्पितो वसिष्ठः वासिल.' इस अर्थ या विग्रह में ] कौशिल वासिलः इत्यादि [शब्द प्रयुक्त होते है वह ] कैसे [बनते है । यह प्रश्न है ], [इसका उत्तर] कहते है। कौशिक और वसिष्ठ आदि शब्दो से नीति अथवा अनुकम्पा में ['अनुकम्पायाम्' अष्टा० ५, ३, ७६, 'नीती च तद्युक्ते' अष्टा० ५, ३, ७७ इन सूत्रो के प्रकरण में ] 'घनिलचौ च [अष्टा० ५, ३, ७९ ] सूत्र से इलच् [प्रत्यय ] करने पर 'गजादावूर्ध्व द्वितीयादच. [अष्टा० ५, ३, ८३ ] इस [ सूत्र] से [द्वितीय अच् 'ई' के बाद के 'क' तथा 'ठ' ] वर्ण को लोप होने से [ कौशिल वासिल यह शब्द ] सिद्ध होते है ॥६१॥
म. टाध्यायी ५, ३, ७९ ।
अप्टाध्यायी ५, ३, ८३ ।