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३४० ] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र ५८ इत्यत्र 'चतुरस्रशोभि' इति न युक्तम् । ब्रीह्यादिषु शोभाशब्दस्य पाठेऽपि इनिरत्र न सिद्धयति 'ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिप्रतिषेधात्।
भवतु वा तदन्तविधिः । कर्मधारयान्मत्वर्थीयानुपपत्तिः। लघु
'यहां चतुरस्रशोभि' यह [ वपु का विशेषण ] ठीक नहीं है । [क्योकि 'शोभा शब्द' अवन्त नहीं है इसलिए 'अत इनिठनौं', अष्टा० ५, २, ११५ । -सूत्र से इनि प्रत्यय नहीं हो सकता है। ब्राह्मादि गण मे यदि उसका पाठ होता तो 'ब्रह्मादिभ्यश्च' अष्टा० ५, २,११६ सूत्र से इनि प्रत्यय हो सकता था। परन्तु वहां भी 'शोभा' शब्द का पाठ नही है। तीसरा मार्ग यह हो सकता था कि जैसे पिछले सूत्र में व्रीह्यादि गण को प्राकृतिगण मान कर उसमें अपठित 'धन्व' शब्द का व्रीह्यादि गण में पाठ मान लिया गया है। इसी प्रकार इस 'शोभा' शब्द का भी बीह्यादि गण में पाठ मान कर 'इनि' प्रत्यय कर लिया जाय । सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि ], बीह्यादि [गण को प्राकृति गण मान कर उस ] मे शोभा शब्द का पाठ मानने पर भी यहां इनि [प्रत्यय] सिद्ध नही हो सकता है । 'ग्रहणवता प्रातिपदिकन' [इत्यादि के अनुसार] से तदन्तविधि का निषेध होने से। [शोभा शब्द' जिसके अन्त में है ऐसे 'चतुरस्रशोभा' पद' से 'इनि' नहीं हो सकता है।
___ अथवा दुर्जनतोष-न्याय से तदन्त विधि भी मान ले तो भी 'चतुरस्रशोभी' यह पद नही बन सकता है । क्योकि 'चतुरस्रा च सा शोभा चतुरस्रशोभा' यह कर्मधारय समास हुआ । 'सा अस्यास्ति इति चतुरस्रशोभि' इस प्रकार कर्मधारय से मत्वर्थीय इनि प्रत्यय करने पर 'चतुरस्रशोभि' पद को सिद्ध किया जाय यह चौथा प्रकार हो सकता था । परन्तु वह भी सम्भव नही है । क्योकि 'न कर्मधारयान् मत्वर्थीयो बहुव्रीहिश्चेत् तदर्थप्रतिपत्तिकर' इस के अनुसार कर्मधारय ममास से मत्वर्थीय इनि प्रत्यय नही हो सकता है। क्योकि 'चतुरस्रा शोभा यस्य तत् चतुरस्रशोभम्' इस वहुव्रीहि समास से भी वह अर्थ निकल आता है। और इस वहुव्रीहि को प्रक्रिया मे लाघव रहता है । इसलिए 'चतुरस्रशोभि' पद की सिद्धि के लिए कर्मधारय से मत्वर्थीय इनि प्रत्यय के गुरुभूत चतुर्थ मार्ग का भी अवलम्बन नहीं किया जा सकता है । इसी बात को आगे कहते है ।
अथवा [ दुर्जनतोष-न्याय से कथञ्चित् ] तदन्तविधि भी [ मान्य] हो जाय [फिर भी] कर्मधारय [ समास ] से मत्वर्थीय [ इनि प्रत्यय] की अनुपपत्ति है। [ क्योकि उसमें प्रक्रिया का गौरव, प्राधिक्य होता है। और