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पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
धन्वीति व्रीह्यादिपाठात् । ५, २, ५७ ।
व्रीह्यादिषु 'धन्व' शव्दस्य पाठात् 'धन्वी' इति इनौ सति सिद्धो भवति ॥ ५७ ॥
सूत्र ५७-५८ ]
चतुरस्रशोभीति णिनो । ५,२,५८ । बभूव तस्याश्चतुरस्रशोभि वपुर्विभक्तं नवयौवनेन ।
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होता है । सामग्रयम् सामग्री, वैदग्ध्यम् वैदग्धी [इन प्रयोगो में विकल्प करके होता है । अर्थात् जहाँ स्वार्थिक ष्यन् प्रत्यय होता है वहाँ उसके षित होने से 'षिद्गौरादिभ्यश्च' इस सूत्र से विहित डोष् प्रत्यय बहुल करके होता है । इसलिए 'ब्राह्मण्यम्' आदि में डीषु नहीं होता और अन्यत्र विकल्प से होता है ] ।
यहाँ काशी वाले सस्करण मे सामग्रयम्-सामग्री, वैदग्ध्यम् - वैदग्धी इन उदाहरणो को इसी सूत्र की वृत्ति मे जोड दिया है । परन्तु डा० गगानाथ जी भी ने इस ग्रन्थ का जो अग्रेजी अनुवाद किया है उसमे इस सूत्र के बाद 'सामग्रयादिषु विकल्पेन' यह सूत्र ओर दिया है । और 'सामग्रयम्' आदि को उस नूत्र का उदाहरण माना है । काशी वाले सस्करण में वह सूत्र नही है ॥ ५६ ॥
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धन्वी यह [ पद ] ब्रह्मादि [ गण में धन्व शब्द का ] पाठ होने से [ सिद्ध होता है ] ।
[ धन्वन् शब्द के श्रदन्त न होने से 'श्रुत इनिठनौं' अष्टाध्यायी ५, २, ११५ सूत्र से इनि प्रत्यय नही हो सकता है। इसलिए ] व्रीह्यादि गण में [ उमको श्राकृतिगण मान कर ] 'धन्व' शब्द का पाठ होने से [ 'व्रीह्यादिभ्यश्च' अष्टा० ५, २, ११६ । इस सूत्र से ] इनि प्रत्यय होकर 'धन्वी' यह [ पद ] सिद्ध होता है । [ वृत्ति के वाराणसीय सस्करण में 'धन्वन्' शब्द का व्रीह्यादि गण में पाठ माना है । उसके स्थान पर डा० गंगानाथ झा ने 'धन्वं' शब्द का पाठ रखा है । वही अधिक अच्छा है इसलिए हमने भी मूल में उसी पाट को स्थान दिया है ] ॥ ५८ ॥
[ 'सुप्यजाती णिनिस्ताच्छील्ये' श्रष्टा० ३,२, ७८ सूत्र से ताच्छील्य अर्य में 'चतुरत शोभितु शील अस्य' इस विग्रह में ] णिनि प्रत्यय होने पर 'चतुरस्त्र - atit' यह [ पद ] सिद्ध होता है ।
नव यौवन से विभक्त उसका शरीर चारो ओर मे शोभायुक्त होगा ।