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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र ५५-५६ 'मुग्धिमा' 'प्रीढिमा' इत्यादिपु इमनिज़ मृग्यः । अन्वेपणीय इति ॥ ५४॥
औपम्यादयश्चातुर्वर्ण्यवत् । ५, २, ५५ ।
औपम्यं, सान्निध्यम् , इत्यादयश्चातुर्वण्यवत् । 'गुणवचन' इत्यत्र 'चातुर्वाढीनामुपसंख्यानम्' इति वार्तिकात् स्वार्थिकज्यमन्तः ॥ ५५ ।।
प्या पित्करणादीकारो वहुलम् । ५, २, ५६ ।
'गुणवचनब्राह्मणादिभ्य' इति पित्करणादीकारो भवति । स बहुलम् । 'ब्राह्मण्यम्' इत्यादिपु न भवति । 'सामग्रय' सामग्री, वैदग्ध्यं वैदग्धीति ।। ५६ ॥
मुग्धिमा, प्रौढिमा इत्यादि [प्रयोगो] में [श्रूयमाण ] इमनिच् [प्रत्यय मृग्य अर्थात् ] अन्वेषणीय है । [ पृथ्वादि गण में मुग्ध,प्रौढ आदि शब्दो का पाठ न होने मे इमनिज् विधायक 'पृथ्वादिभ्य इमनिज् वा अष्टाध्यायी ५, १, १२२ इम मूत्र से इमनिच् प्रत्यय होना सम्भव नहीं है । अतः यह प्रयोग अशुद्ध है ] ॥५४॥
श्रौपम्य प्राटि [ शब्द ] चातुर्वर्ण्य [गन्द ] के समान ['चतुर्वर्णादीनां म्बार्थे उपसंस्थानम्' इस वार्तिक मे स्वार्थ में प्यञ् प्रत्यय करके बनते ] है।
'श्रीपम्य', 'मान्निध्य' इत्यादि [प्रयोग ] चानुर्वर्ण्य [शब्द ] के समान [म्बार्य में प्यन् प्रत्यय करके सिद्ध होते ] है । [ 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' सप्टाध्यायी ५, १, १२४ इम सूत्र के प्रतीक रूप ] गुणवचन इस [सूत्र ] में 'चतुर्वर्णादीनाम् म्बार्थ उपाख्यानम्' इस वातिक से स्वार्य में प्यन् प्रत्ययान्त [जमे चातुम पद बनता है। इसी प्रकार स्थायिक ज्या प्रत्यय करके ही 'उपमं श्रीपम्म , 'मन्निधिरेव सान्निध्यम्' प्रादि प्रयोग बनते ] है ॥ ५५ ।।
(गणवचनब्राह्मणादिभ्यः प्यन्न इस सूत्र से विहित ] प्यम् [प्रत्यय ] के शिकरण मे [ उनके आधार पर विद्गारादिभ्यश्च' । अष्टा० ४, १, ४१ इस मून ने कि हुए 'डी' प्रत्यय का अवशेष रूप] ईकार बहुल करके होता है।
'गुणवचनब्राह्मणादिभ्य.कर्मणिच [ अष्टाध्यायी ५, १, १२४ ] इस [सूत्र] मे जो [टीप प्रत्यय का अवशेष स्प] ईकार होता है वह बहुल करके [ कहाँ होता, कहीं नहीं ] होना है। [स] 'ब्राह्मण्यम्' इत्यादि [प्रयोगो] में नहीं