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सूत्र ५३–५४ ]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
दारवशब्दो दुष्प्रयुक्त । ५, २, ५३ ।
'दारवं पात्रम्' इति 'दारव' शब्दो दुष्प्रयुक्तः । 'नित्यं वृद्धशरादिभ्यः' इति मयटा भवितव्यम् । ननु विकारावयवयोरर्थयोर्मयड विधीयते । अत्र तु दारुण इदमिति विवक्षायां 'दारवम्' इति भविष्यति । नैतदेवमपि स्यात् । 'वृद्धाच्छ:' इति 'छ' विधानात् ॥ ५३ ॥
मुग्धिमादिषु इमनिज् मृग्यः । ५, २, ५४ |
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नह" बन सकते । किन्तु 'तत्र साधु:' इस सूत्र से साधु अर्थ में 'यत्' प्रत्यय करके 'राजवंशे साधुः राजवंश्यः', 'सूर्यवंशे साधुः सूर्यवंश्य' इस प्रकार के प्रयोग वन सकते है । ] ॥ ५२ ॥
[ 'दारुण इदं दारव' लकड़ी का इस अर्थ में प्रयुक्त ] 'दारवम्' यह शब्द goप्रयुक्त [ शुद्ध प्रयोग ] है ।
[ लकड़ी का बना हुआ पात्र है इस अर्थ में प्रयुक्त ] 'दारवं पात्रम्' यह 'दारव' शब्द अनुचित [ अशुद्ध ] प्रयोग है । [ यहां दार शब्द से ] 'नित्यं वृद्धशरादिभ्यः [ अष्टाध्यायी ९, ३, १४४ ] इस [ सूत्र ] से मयट् [ प्रत्यय होकर 'दारुमय' इस प्रकार का प्रयोग ] होना चाहिए ।
[प्रश्न ] मयट् प्रत्यय तो विकार और श्रवयव अर्य में होता है । यहां तो 'दारुण इद' यह लकड़ी का है इस [सम्बन्ध सामान्य ] की विवक्षा में ['तस्येद' अध्याय ४, ३, १२० इस सूत्र से ऋण प्रत्यय होकर ] 'दारव' यह ' [ प्रयोग ठीक ] हो जायगा । [ फिर आप उसको दुष्प्रयुक्त या अशुद्ध प्रयोग क्यो कहते हैं ? ]
[ उत्तर ] इस प्रकार भी यह [ दारवम् ] नहीं बन सकता है। 'वृद्धाच्छ.' [ अष्टाध्यायी ५, २, ११४] इस [ सूत्र ] से 'छ' का विधान होने ते [ 'दार्वीयं पात्रम्' यह प्रयोग होना चाहिए। श्रत. 'दारवं पात्रम्' यह प्रयोग ठीक नहीं है ] ॥ ५३ ॥
मुग्धमा आदि [ प्रयोग ] में [ दिखाई देने वाला ] इमनिज् [ प्रत्यय ] खोजना पड़ेगा । [ साधारणत. 'पृथ्वादिभ्य इमनिज् वा' अष्टाध्यायी ५, १, १२२ इस सूत्र से पृथ्वादि गण पठित शब्दो से इमनिच् प्रत्यय विकल्प से होता है । परन्तु उस पृथ्वादिगण में मुग्ध, प्रौढ, आदि शब्दो का पाठ नहीं है । इसलिए इन शब्दो से इमनिच् प्रत्यय सम्भव नहीं है ] ।