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________________ ३३६ ] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र ५२ 'शाश्वतं ज्योतिः' इत्यत्र शाश्वतमिति न सिद्धयति । 'काला' इति ठ प्रसङ्गात् । 'येषाञ्च विरोधः शाश्वतिकः' इति सूत्रकारस्यापि प्रयोगः । ___ आह प्रयुक्तेः । 'शाश्वते प्रतिषेध' इति प्रयोगात्, शाश्वतमिति भवति ॥ ५१ ॥ राजवंश्यादय साध्वर्थे यति भवन्ति । ५, २, ५२ । 'राजवंश्याः' 'सूर्यवंश्या' इत्यादयः शब्दाः, 'तत्र साधुः' इत्यनेन साध्वर्थे यति प्रत्यये सति साधवो भवन्ति । भवार्थे पुनर्दिगादिपाठेऽपि वंशशब्दस्य वंशशब्दान्तान यत् प्रत्ययः । तदन्तविधेः प्रतिपेधात् ।। ५२ ॥ पूर्वपक्ष ] 'शाश्वत ज्योतिः' इस [ खण्डवाक्य ] मे 'शाश्वत' यह [ पद ] सिद्ध नही होता है । 'कालान्' इस [पूर्वोक्त सूत्र ] से ठन् प्राप्त होने से [ 'शाश्वतं' के बजाय 'शाश्वतिक' प्रयोग होना चाहिए । 'येषां च विरोधः शाश्वतिक.' [ अष्टाध्यायी २, ४, ९] यह सूत्रकार [ पाणिनि ] का भी [ 'शाश्वतिकः' ही ] प्रयोग है। [अतएव 'शाश्वतम्' यह प्रयोग उचित नही है। [उत्तरपक्ष ] कहते है । [ 'शाश्वतम्' यह प्रयोग भी वार्तिककार द्वारा] प्रयुक्त होने से [ ठीक है। वातिककार के ] 'शाश्वते प्रतिषेधः' इस [प्रकार अण् प्रत्ययान्त 'शाश्वत' शब्द के ] प्रयोग से 'शाश्वतम्' यह [ प्रयोग भी शुद्ध ] होता है ॥ ५१॥ 'राजवंश्य' आदि शब्द [ 'तत्र साधु: अष्टाध्यायी ४,४, ८९ इस सूत्र से ] साधु अर्थ में यत् [ प्रत्यय ] होने पर [ सिद्ध ] होते है । [ भवार्थ में नहीं ]। राजवश्य, सूर्यवश्य इत्यादि शब्द 'तत्र साधुः' [अष्टाध्यायी ४, ४, ८९] इस [ सूत्र ] से साधु अर्थ में यत् प्रत्यय होने पर शुद्ध होते है। भवार्थ में [ यत् प्रत्यय का विधान करने वाले 'दिगादिभ्यो यत्' अष्टाध्यायी ४, ३ ५४ में निर्दिष्ट ] दिगादि [गण ] में वश शब्द का पाठ होने पर भी वश शब्दान्त [राजवश, सूर्यवश इत्यादि शब्दो] से यत् प्रत्यय नहीं होता है। ["ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिप्रतिषेध' इस परिभाषा के अनुसार ] तदन्नविधि का प्रतिषेध होने से [ 'राजवंशे भव राजवंश्या', 'सूर्यवशे भवः सूर्यवंश्य' यह प्रयोग
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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