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सूत्र ४९-५०-५१ ] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय.
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कार्तिकीय इति ठञ दुर्घर: ५,२,४९ । ‘कार्तिकीयो नभस्वान्' इत्यत्र ‘कालाट्ठन्' इति ठन् दुर्धरः । ठ भवनं दुःखेन धियते ॥ ४६ ॥
शार्वरमिति च । ५, २, ५० ।
‘शार्वरं तम' इत्यत्र च ‘कालाट्ठब्' इति ठब् दुर्धरः ॥ ५० ॥ शाश्वतमिति प्रयुक्तेः । ५, २, ५१ ।
यह उसके उदाहरण है । [ 'अलाबू: कर्कन्धू' शब्द स्वतः ही दीर्घ ऊकारान्त शब्द है । फिर भी उनसे ऊड् प्रत्यय करने का फल 'नोड्घात्वोः ' भ्रष्टा० ६, १, १७५ इस सूत्र से विभक्ति के उदात्तत्व का प्रतिषेध करना ही है । प्राणिजातिवाची 'कृकवाकु.' इत्यादि में तथा 'रज्जुः हनु.' इत्यादि में यह ऊड् प्रत्ययः नहीं होता है । अन्य उकारान्त शब्दो से ऊड़ हो सकता है ] इसलिए
हे सुभ्र, घबडाती क्यो हो ।
यहां सुभ्र, शब्द से ऊड् प्रत्यय करके [ सम्बुद्धि में 'श्रम्वार्थनद्योह्र स्व.' इस सूत्र से ह्रस्व करके ] सुभ्र. यह [ रूप ] सिद्ध हो जाता है । ऊड् [ प्रत्यय ] के न होने [ हे श्री. के समान हे ] 'सुभ्रू:' यह [ रूप ] होगा ॥ ४८ ॥
afanta इस [ प्रयोग ] में [ 'कालाट्ठन्' इस सूत्र से प्राप्त होने वाला ] a [ प्रत्यय ] रोका नहीं जा सकता है। [ श्रतः कार्तिक शब्द से ठन् प्रत्यय होकर 'कार्तिकिक.' प्रयोग होना चाहिए । कार्तिकीय. प्रयोग अशुद्ध है ] ।
'कार्तिकीयो नभस्वान्' [कार्तिक का वायु] इस [ प्रयोग ] में 'कालाट्ठम्' [ अष्टा० ४, ३, ११ ] इस सूत्र से [ प्राप्त होने वाला ] ठञ् प्रत्यय का रोकना कठिन है । [ ठन् का होना मुश्किल से रुक सकता है, नहीं रुक सकता है । अतएव 'कार्तिकीय.' यह प्रयोग शुद्ध नहीं है 'कार्तिकिक ' यह प्रयोग होना चाहिए ] ॥ ४९ ॥
और शार्वरं यह भी [ प्रयोग ठीक नहीं है ]
'शार्वरं तम' रात्रि का अन्धकार यहां भी [ 'शार्बर' पद में 'शर्वरी' शब्द से ] 'कालाट्ठञ' इस सूत्र से ठज्ञ रुक नहीं सकता है । [ इसलिए 'शार्वरिकं तम.' ऐसा प्रयोग होना चाहिए था 'शार्वरं तम' प्रयोग उचित नही है ] ॥ ५० ॥
'शाश्वतम्' यह [ शब्द, वार्तिककार के 'शाश्वते प्रतिषेध' इस ] प्रयोग से [ सिद्ध होता है ] |