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३३४] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[सूत्र ४८ 'सुतनु जहीहि मानं पश्य पादानतं माम् ।' इत्यत्र मनुष्यजातेर्विवक्षेति सुतनुशब्दाद् 'ऊडुतः' इत्यूङि सति ह्रस्वत्वे 'सुतनु' इति सिद्धयति ।
___'वरतनुरथवासौ नैव दृष्टा त्वया मे ।' अत्र मनुष्यजातेरविवक्षेति अङ्न कृतः ॥ ४७ ॥
ऊकारान्तादप्यूङ प्रवृत्तेः । ५, २, ४८ । उत ऊ विहित ऊकारान्तादपि क्वचिद् भवति । आचार्यप्रवृत्तः । क्वासौ प्रवृत्तिः । 'अप्राणिजातेश्चारज्ज्वादीनाम्' इति । अलाबूः कर्कन्धरित्युदाहरणम् । तेन
'सुभ्र किं सम्भ्रमेण .
अत्र 'सुभ्र' शब्द ऊङि सिद्धो भवति । अडि त्वसति “सुभ्र' इति स्यात् ॥ ४८ ॥
___ 'हे सुतनु [ सुन्दरी ] मान को छोडो और पैरों पर झुके हुए मुझको देखो' यहा [सुतनु शब्द मे ] मनुष्यजाति की विवक्षा है इसलिए सुतनु शब्द से उडुतः [अष्टा० ४, १, ६६ ] इस सूत्र से ऊड् प्रत्यय होने पर [ सम्बोधन के एक वचन में पूर्वोक्त 'अम्वार्थनघोह स्वः [ इस सूत्र से ] ह्रस्व होने पर 'सुतनु' यह सिद्ध होता है ।
अथवा तुमने मेरी वरतन [ सुन्दरी प्रियतमा ] को नही देखा है।
यहां मनुष्यजाति को विवक्षा नहीं है इसलिए ऊड़ नही किया है। [अन्यथा ऊ करने पर 'वरतनूः' का रूप होता] ॥ ४७ ॥
अडुतः ४, १, ६६ में जो उकारान्त शब्दों से ऊड् प्रत्यय ] कहा है वह ] ऊकारान्त [ शब्द से ] भी ऊड होता है। प्राचार्य [वातिककार ] की प्रवृत्ति [ सूत्ररचना ] होने से।
[ऊडुतः इस सूत्र से केवल ] उकारान्त से ऊड्' का विधान किया गया है। वह कहीं कही ऊकारान्त [शब्द ] से भी हो जाता है। प्राचार्य [वातिककार ] की प्रवृत्ति [ एतद्विषयक सूत्र रचना ] होने से। वह अकारान्त से ऊ विधायक प्रवृत्ति [ सूत्र रचना ] कहां की गई है। [यह प्रश्न किया गया है । इसका उत्तर करते है ] 'अप्राणिजातेश्चारज्ज्वादीनाम् [प्राणिजातिवाचक शब्दो से भिन्न और रज्जु आदि शब्दो को छोड़ कर शेष उकारान्त शब्दो से ऊड् प्रत्यय हो ] । इस [ सूत्र ] में ह्रस्व तथा दीर्घ दोनो प्रकार के उकारान्त शब्दो से ऊड का विधान पातिककार ने किया है ] । 'अलाबूः, कर्कन्धू'