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सूत्र ४७] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [३३३
नाभिशब्दात् पुनः "इतश्च प्राण्यगात्' इतीकारे कृते निम्ननाभीकेति स्यात् ।।
हतोष्ठरागैर्नयनोदविन्दुभिर्निमग्ननाभेनिपतद्भिरक्षितम् । च्युतं रुषा मिन्नगतेरसंशयं शुकोदरश्याममिदं स्तनांशुकम् ॥ अत्र निमग्ननाभेरिति मनुष्यजातेरविवक्षेति डीप न कृतः ।
बहुव्रीहि समास वाले पद मे स्त्रीलिंग मे 'इतश्च प्राण्यगवाचिनो वा डीप वक्तव्य' इस नियम के अनुसार यदि डीप करके 'निम्ननाभी' यह स्त्रीलिंग का रूप बनाया जाय तो उससे 'नवृतश्च [अ० ५, ४, १५३ ] इस सूत्र से समासान्त कप् प्रत्यय होकर 'केऽण' [ अष्टा० ७, ४, १३ ] से प्राप्त होने वाले ह्रस्व का 'न कपि' [अष्टा० ७,४,१४] से निषेध हो जाने से 'निम्ननाभीका' यह प्रयोग वनने लगेगा। 'निम्ननाभि' यह प्रयोग नही बनेगा। इसी बात को वृत्तिकार इस प्रकार कहते है ।
और नाभि शब्द से 'इतश्च प्राण्यगात्' इस से ईकार अर्थात् डीए करने पर 'निम्ननाभीका' यह प्रयोग होने लगेगा।
यह स्थल कुछ सन्दिग्ध है । मूल ग्रन्थ मे 'निम्ननाभिकेति' स्यात् यह पाठ दिया है । ड्रा० गगानाथ ने भी अपने आग्लभापानुवाद मे 'निम्ननामिका' यही पाठ माना है । परन्तु काव्यालकार सूत्रवृत्रि के टीकाकार त्रिपुरहर भूपाल ने ईकार होने के वाद कप् प्रत्यय और उसके परे रहते ह्रस्वत्व का निपेध करके 'निम्ननाभीका इति स्यात्' ऐसा पाठ दिया है । टीकाकार के अनुरोध से हमने भी यहाँ मूल में 'निम्ननाभीकेति' पाठ ही रखा है ।
मनुष्यजाति की अविवक्षा मे डीप् के अभाव का दूसरा उदाहरण दिखलाते है
क्रोध के कारण विशृखल गतिवाली निमग्ननाभि [ प्रियतमा ] के प्रोण्ठ पर गिर कर ओण्ठराग का हरण करने वाले [ रोने के कारण ] टपकते हुए आसुत्रो से अकित शुक के उदर के समान हरित वर्ण यह चोली [ स्तनाशुक] गिर पड़ी है।
___ यहा ननुष्यजाति को अविवक्षा है इमलिए 'निमग्नामें.' इस पद में डोष नहीं किया है। [अन्यथा पप्ठी विभक्ति में नदी शब्द के समान 'निमग्ननाभ्या' यह रूप बनता] ।
१अष्टाध्यायी।