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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र ४७
"इतो मनुष्यजाते:' 'ऊडुतः' इत्यत्र मनुष्यजातेर्विवक्षा अविवक्षा
च लक्ष्यानुसारतः ।
मन्दरस्य मदिराक्षि पार्श्वतो निम्ननाभि न भवन्ति निम्नगाः । वासु वासुकिविकर्षणोद्भवा भामिनीह पदवी विभाव्यते ॥ अत्र मनुष्यजातेर्विवक्षायां 'इतो मनुष्यजातेः' इति 'डीषि' सति ''अम्बार्थनद्योह्न 'स्वः' इति सम्बुद्धौ ह्रस्वत्वं सिद्ध्यति ।
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मनुजाते. [ पा० ४, १, ६५ ] और ऊडुतः [ पा० ४, १, ६६ ] यहा [ इन सूत्रो मे ] मनुष्यजाति को विवक्षा और अविवक्षा लक्ष्य के अनुसार होती है ।
हे निम्ननाभि [ वाली ] मदिराक्षि [ वासु ] बालिके [ भामिनि ] प्रिये मन्दराचल के किनारे यह नदिया नहीं है [ तुम जिनको नदी समझ रही हो ] वह [ समुद्र मन्थन के समय वासुकि सर्प जिसको मन्थनदण्ड रई के स्थानापन्न मन्दराचल के चारो ओर रस्सी के स्थान पर बाध कर और उसको खींच-खींच कर समुद्र का मन्थन किया गया था । उस ] वासुकि के [ बार-बार ] खीचने से उत्पन्न हुई लकीर दिखलाई देती है ।
यहा मनुष्यजाति की विवक्षा में [ निम्ननाभि तथा मदिराक्षि प्रादि शब्दो में ] 'इतो मनुष्यजाते' [ पा० ४, १, ६५ ] इस सूत्र ते 'डी' [ प्रत्यय ] होने पर [ निम्ननाभी मदिराक्षी शब्दो के ] सम्बोधन के एकवचन में 'अम्बार्थनद्योह्र स्व.' [ अ० ७, ३, १०७ ] इस सूत्र से हस्वत्व [ और सु का लोपादि होकर हे निम्ननाभि, हे मदिराक्षि आदि पद ] सिद्ध होता है [ श्रन्यथा हे निम्ननाभे आदि रूप वनेंगे ] ।
यह हो सकता है कि निम्ननाभि में 'इतञ्च प्राण्यगवाचिनो वा डीष् वक्तव्य. ' इस नियम के अनुसार नाभि शब्द से डीप् कर लेने पर भी 'अम्वार्थ नद्योर्ह्रस्व ' से ह्रस्व होकर 'हे निम्ननाभि' रूप वन सकता है । तब मनुष्य जाति की विवक्षा अविवक्षा मानकर डीप् करने का प्रयत्न क्यो किया जाय ।
इसका उत्तर वृत्तिकार यह करते है कि 'निम्ननाभि' पद मे 'निम्न है नाभि जिसकी वह निम्ननाभि है इस प्रकार का बहुव्रीहि समास है । उस
१ अष्टाध्यायी ४, १, ६५ अष्टाध्यायी ४, १, ६६ । 3 अष्टाध्यायी ७,३, १०७ ।