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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र २०
हस्ताग्राग्रहस्तादयो गुणगुणिनोर्भेदाभेदात् । ५, २, २० ।
हस्ताग्रम् अग्रहस्तः, पुष्पाग्रम्, अग्रपुष्पमित्यादयः प्रयोगाः कथम् । श्राहिताग्न्यादिषु पाठात् । पाठे वा तदनियमः स्यात् । श्रह, गुणगुणिनोर्भेदाभेदात् । तत्र भेदाद् हस्ताम्रादयः अभेदादप्रहस्तादयः ॥ २० ॥
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'हस्तान' तथा 'अग्रहस्त' आदि [ प्रयोग ] गुण-गुणी के भेद और प्रभेद [ सिद्ध हो सकते ] है ।
'हस्ताग्रम्', 'अग्रहस्तः', 'पुष्पाग्रम्' और 'अग्रपुष्पम्' इत्यादि [ परस्पर भिन्न ] प्रयोग कैसे [ सिद्ध ] होते हे । [ श्राहिताग्नि गण में पठित शब्दो में .. 'वाहिताग्न्यादिषु' इस सूत्र से विकल्प होने के कारण 'श्राहिताग्निः' और 'अग्न्याहितः' यह दोनो प्रकार के प्रयोग देखे जाते है । उसी प्रकार इन 'हस्ताग्रम्' 'अग्रहस्त' श्रादि प्रयोगो को सिद्ध करना चाहे तो वह भी नही हो सकता है ] । 'आहिताग्नि आदि' [ गण ] मे [ हस्ताग्रम्, अग्रहस्तः श्रादि का ] पाठ न होने से । [ और यदि 'आहिताग्नि गण' को 'श्राकृतिगण' मान कर उसमें अपठित 'हस्ताग्रम्' आदि शब्दो का पाठ मानना चाहे तो भी उचित नही होगा क्योकि वह सूत्र बहुव्रीहि समास के प्रकरण का है और 'हस्तानम्' आदि में षष्ठीतत्पुरुष समास ही सङ्गत हो सकता है बहुव्रीहि नही । इसलिए 'श्राहिताग्नि गण' में हस्ताग्रम् श्रादि का ] पाठ मानने पर उस [ 'वाहिताग्न्यादिषु' इस सूत्र ] का [ बहुव्रीहि समासविषयक ] नियम नहीं बनेगा । [ यह शङ्का हो सकती है ] इसलिए [ उसके समाधानार्थ ] कहते है । गुण और गुणी के भेद तथा भेद से [ यह द्विविध प्रयोग बनते है । यहां गुण शब्द का अर्थ अवयत है । 'अत्र गुणशब्देन परार्थत्वसादृश्यादवयवा लक्ष्यन्ते ] | उसमें [ हस्त रूप गुणी और उसके अवयव भूत श्रग्न रूप गुण का ] भेद [ मानने ] से [ 'हस्तस्य अग्नम्' इस प्रकार षष्ठी तत्पुरुष समास करके ] 'हस्ताग्रम्' आदि [ प्रयोग बनते है । ] श्रौर [ हरत रूप तथा उसके श्रवयवभूत अग्र रूप का ] अभेद मानने पर [ अग्रश्चासौ हस्तः ] 'प्रग्रहस्त' आदि [ प्रयोग सिद्ध ते है ]। इनमें विशेषण विशेष्येण बहुलम्' इस सूत्र से समास होता है ] ॥ २० ॥ '
१ अष्टाध्यायी २, २, ३७ ।
२ श्रष्टाध्यायी २, १,५७ ॥
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