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सूत्र १९ ]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[ ३१३
अवर्ज्यो बहुव्रीहिर्व्यधिकरणो जन्माद्युत्तरपदः । ५, २, १६ । अवर्थो न वर्जनीयो व्यधिकरणो बहुव्रीहिः । जन्माद्युत्तरपदं यस्य स जन्माद्युत्तरपदः ।
यथा—
'सच्छास्त्रजन्मा हि विवेकलाभ:' । 'कान्तवृत्तयः प्रारणा' इति ॥ १६ ॥
[ पीतिमा, पिङ्गलिमा आदि गुणो का कथन होने ] से गुणवचन से [ अर्थात् 'पूरणगुण' इत्यादि पूर्वोक्त सूत्र से ] षष्ठी समास का प्रतिषेध प्राप्त है । [ परन्तु इन प्रयोगो में प्रयोगकर्ता ने ] सूर्खतावश [ समास का निषेध ] नहीं किया [ अर्थात् समास कर दिया ] है । [ अत. यह प्रयोग दूषित है ] ।
सिद्धान्तकौमुदीकार ने 'अनित्योऽय गुणेन निषेध. । तदशिप्य सज्ञाप्रमाणत्वात् इत्यादिनिर्देशात्' लिख कर इस गुण के साथ षष्ठी समास के प्रतिषेध की अनित्यता सूचित की है। उस दशा में यह गिष्टप्रयोग वन सकते है । यह अन्य लोगो का मत है ॥ १८ ॥
जन्मादि उत्तरपद वाला बहुव्रीहि [ समास ] श्रवर्जनीय है ।
यद्यपि साधारणत. ' पीत अम्बर यस्य स पीताम्बर' आदि के समान बहुव्रीहि समास मे समस्यमान दोनो पदो का सामानाधिकरण्य अर्थात् विशेष रूप से प्रथमान्तत्व ही होता है । इसका प्रतिपादन 'बहुव्रीहि समानाविकरणानाम्' इम वार्तिक मे किया गया है । परन्तु इम वार्तिक का बाघक 'न वा नभिधानादसमानाधिकरणेषु समामसजाभाव' यह बार्तिक भी पाया जाता है । इस वार्तिक मे व्यधिकरण समास का भी समर्थन होता है इसलिए जन्मादि के उत्तरपद होने पर व्यधिकरण बहुव्रीहि भी हो सकता है यह तात्पर्य है ।
व्यधिकरण बहुव्रीहि अवर्ण्य अर्थात् वर्जनीय [ निषिद्ध ] नहीं है । जन्मादि [ पद ] जिसके उत्तरपद है वह जन्माद्युत्तरपद वाला [ व्यधिकरण 'बहुव्रीहि समास वर्जनीय नही है ] ।
जैसे
'सच्छास्त्रजन्मा हि विवेकलाभ ' [ में 'सच्छास्त्रात् जन्म यस्य' इस बहुव्रीहि में सच्छास्त्रात् पञ्चमी विभक्ति और 'जन्म' प्रयमान्त होने से व्यधिकरण बहुव्रीहि हं ] और 'कान्तवृत्तयः प्राणा.' [ में कान्ते प्रिये वृत्तिर्येषां ते कान्तवृत्तय' में 'कान्ते' सप्तम्यन्त तया 'वृत्ति.' प्रथमान्त होने मे व्यधिकरण बहुव्रीहि है ] ॥ १९ ॥