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सूत्र १६ ]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[ ३११
'बिम्बाधरः पीयते' इति प्रयोगो दृश्यते । स च न युक्त: । 'अधरविम्ब' इति भवितव्यम् । उपमितं व्याघ्रादिभि' रिति समासे सति कथं बिम्वाधर इत्याह । वृत्तौ मध्यमपदलोपिन्याम् । 'शाकपार्थिवत्वात्' समासे । मध्यमपदलोपिनि समासे सति विम्बाकारोऽधरो विम्बाधर इति । तेन बिम्बोष्ठशब्दोऽपि व्याख्यात । अत्रापि पूर्ववद् वृत्तिः । शिष्टप्रयोगेषु चैप विधिः । तेन नातिप्रसङ्गः ॥ १५ ॥
आमूललोलादिषु वृत्तिर्विस्पष्टपटुवत् । ५, २, १६ । 'आमूललोलम्' 'आमूलसरसम्' इत्यादिषु वृत्तिर्विस्पष्टपटुवन् * मयूरव्यंसकादित्वात् ॥ १६ ॥
'बिम्बाधरः पीयते' इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है । वह उचित नहीं है । [ अधरो बिम्बमिव इस विग्रह में ] 'उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे' इस सूत्र से समास होने पर 'घरबिम्ब' यह [ प्रयोग ] होना चाहिए । [ बिम्बाधर नहीं ] तो 'बिम्बाधर' प्रयोग कैसे होता है । इस [ शङ्का के होने ] पर [ उसके समाधान के लिए ] कहते हैं । [ 'बिम्बाकारोऽघर: बिम्बाधरः इस प्रकार 'आकार' रूप ] मध्यमपदलोपी वृत्ति में 'शाकपार्थिवत्वात् समास होने पर [ बिम्बाधर पद बनता है । श्रर्थात् 'शाकपार्थिवादीना सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसख्यानम्' इस वार्तिक से 'शाकप्रिय. पार्थिव शाकपार्थिवः' के समान 'शाकपार्थिवत्वात्' ] । मध्यमपदलोपी समास करने पर 'बिम्बाकारो श्रवरः बिम्बाधर.' इस प्रकार 'बिम्बाधर' यह [ पद बन सकता ] है । इसी से 'विम्बोष्ठ' शब्द की भी व्याख्या हो गई । [ यहा 'विम्वाकार ओष्ठ' इस विग्रह में 'शाकपार्थिवत्वात्' मव्यमपदलोपी समास होकर 'बिम्बोष्ठ ' पद सिद्ध हो सकता है ] । यहा भी पूर्व [ बिम्बाधर ] के समान [ मध्यमपदलोपी ] समास है । यह प्रकार शिष्ट प्रयोगो के लिए ही है। इसलिए [ 'व्याघ्राकारः पुरुष व्याघुपुरुष' इस प्रकार के नए प्रयोग में ] प्रतिव्याप्ति नही हो सकती है ॥१५॥
'श्रमूललोलम्' इत्यादि में 'विस्पष्टपटु' के समान [ ४" मयूरव्यसकादयश्च' इस सूत्र से श्रविहितलक्षण तत्पुरुष समास होता है ] ।
‘नामूललोलम्’ ‘श्रामूलसरसम् इत्यादि [ प्रयोगो ] में 'विस्पष्ट पटु' के समान 'मयूरव्यसकादित्वात्' समास होता है ॥ १६ ॥
१- ३ अष्टाध्यायी २, १, ५६ ।
२-४ अप्टाध्यायी २, १,७८ ।