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________________ ३१०] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र १४-१५ त्रिवलीशब्दः सिद्धः सज्ञा चेत् । ५, २, १४ । त्रिवलीशब्दः सिद्धो यदि संज्ञा । "दिक्संख्ये संज्ञायाम्' इति संज्ञायामेव समासविधानात् ॥ १४ ॥ बिम्बाधर इति वृत्तौ मध्यमपदलोपिन्याम् । ५, २, १५। . दिको' में 'पिपासु प्रभृति [ पदो ] का पाठ होने से [ हो सकता है। श्रितादि' में 'गमिगाम्यादिको' के [ द्वितीया तत्पुरष ] समास का विधान [ विधायक सूत्र ] दिखलाया है ॥ १३ ॥ समास के प्रसग मे ही 'त्रिवली' शब्द का समास भी सन्देहास्पद हो सकता है । यदि त्रिवली शब्द असज्ञा हो तो उसमे "तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च' इस सूत्र से सख्यावाचक 'त्रि' शब्द का 'वली' के साथ समास कहा जा सकता है । परन्तु यहाँ ‘पञ्चकपाल' के समान 'तद्धितार्थ' विपय नही है । और न 'पञ्चगवधन' के समान 'उत्तरपद' विषय है और नही 'पञ्चपात्र' इत्यादि के समान 'समाहार' विवक्षित है क्योकि समाहार पक्ष मानने पर "स नपुसकम्' इस सूत्र के अनुसार 'त्रिवली' पद नपुसक लिग हो जाना चाहिए था। इसलिए 'तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च' इस सूत्र से समास नही हो सकता है। यह शङ्का होती है । इसका समाधान सूत्रकार इस प्रकार करते है. कि 'त्रिवली' शब्द को सज्ञा शब्द मान कर 'दिक्सख्ये सज्ञायाम्' इस सूत्र से 'त्र्यवयवा वली त्रिवली' इस विग्रह मे समास होकर 'त्रिवली' पद सिद्ध होता है । यह वात अगले सूत्र मे कहते है । त्रिवली शब्द [ का समास ] सिद्ध है यदि वह संज्ञा है। 'त्रिवली' शब्द सिद्ध है यदि संज्ञा है। 'दिकसंख्ये सज्ञायाम् [अष्टाध्यायी २, १५० ] इस [ सूत्र] से संज्ञा में ही समास का विधान होने से। 'त्रिवली' शब्द का प्रयोग निम्न उदाहरण मे पाया जाता है। कोणस्त्रिवल्येव कुचावलावूस्तस्यास्तु दण्डस्तनुरोमराजि। हारोऽपि तन्त्रीरिति मन्मथस्य सगीतविद्यासरलस्य वीणा ॥ १४ ॥ 'बिम्बाधर' यह [ समस्त पद ] मध्यमपदलोपी समास होने पर [ सिद्ध हो सकता है। १- अष्टाध्यायी २, १, ५० । २ अष्टाध्यायी २, १,५१ । अष्टाध्यायी २, ४, १७ । * अष्टाध्यायी २, १,५१ ।
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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