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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र ३०-३२
एते चालङ्काराः शुद्धा मिश्राश्च प्रयोक्तव्या इति विशिष्टानामलङ्काराणां मिश्रितत्वं संसृष्टिरित्याह-अलङ्कारस्यालङ्कारयोनित्व ससृष्टि: । ४,३३० ॥ अलङ्कारस्यालङ्कारयोनित्वं यदसौ संसृष्टिरिति । संसृष्टिः संसग: सम्बन्ध इति ॥३०॥
तद्भेदावुपमारूपकोत्प्रेक्षावयवी । ४, ३, ३१ । तस्याः संसृष्टेर्भेदावुपमा रूपकश्चोत्प्रेक्षावयवश्चेति ॥ ३१ ॥ उपमाजन्यं रूपकमुपमारूपकम् । ४, ३, ३२ । स्पष्टम् । यथानिरवधि च निराश्रयञ्च यत्र स्थितमनिवर्तित कौतुकप्रपञ्चम् । प्रथम इह भवान् स कूर्ममूर्तिर्जयति चतुर्दशलोकवल्लिकन्दः ॥
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यह अलङ्कार शुद्ध और मिश्र रूप में भी प्रयुक्त हो सकते है । इसलिए विशिष्ट अलङ्कारो का मिश्रण संसृष्टि [ अलङ्कार ] होता है, यह [ अगले सूत्र में] कहते है-
[ एक ] अलङ्कार का जो अलङ्कार हेतुत्व [ अर्थात् दूसरे अलङ्कार के साथ कार्यकारण भाव सम्बन्ध ] है उसको संसृष्टि [ अलङ्कार ] कहते है ।
[ एक ] अलङ्कार का जो [ दूसरे ] अलङ्कार के प्रति हेतुत्व [ अर्थात् दूसरे अलङ्कार के साथ जो कार्यकारण भाव सम्बन्ध ] है वह संसृष्टि [ अलङ्कार कहलाता ] है । संसृष्टि [ का अर्थ ] संसर्ग [ अर्थात् ] सम्बन्ध है ॥ ३० ॥ उसके 'उपमारूपक' तथा 'उत्प्रेक्षावयव' दो भेद है ।
उस संसृष्टि के उपमारूपक और उत्प्रेक्षावयव [ यह ] दो भेद है । 'अलङ्कारयोनित्व' जो संसृष्टि का लक्षण किया है उसमे एक 'अलङ्कार कारण है जिसमें' इस प्रकार का बहुव्रीहि समास करके उपमारूपक को सृष्टि कहा जाता है क्योकि उसमे उपमा रूपक का कारण है । ओर दूसरे भेद 'उत्प्रेक्षावयव' मे अलङ्कारयोनित्व पद मे तत्पुरुष समास किया जाता है । उत्प्रेक्षा का अवयव ‘उत्प्रेक्षावयव' कहलाता है । इस प्रकार ससृष्टि के दो भेदो मे 'अलङ्कारयोनित्व' पद के दो भिन्न-भिन्न समास किए जाते है ॥ ३१ ॥
इन भेदो मे से पहले उपमारूपक का लक्षण करते हैं । उपमा से जन्य रूपक उपमारूपक [ कहलाता ] है | [ सूत्र का अर्थ ] स्पष्ट है । [ उदाहरण ] जैसेजिनके ऊपर यह अनन्त [ निरवधि ] और [ अन्य ] किसी ग्राधार पर