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सूत्र ३३ ]
चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः
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एवं 'रजनीपुरन्धिलोधतिलक' इत्येवमादयस्तद्भेदा द्रष्टव्याः ॥३२॥ उत्प्रेक्षाहेतुरुत्प्रेक्षावयव. । ४, ३, ३३ |
उत्प्रेक्षाया हेतुरुत्प्रेक्षावयवः । श्रवयवशब्दो यारम्भकं लक्षयति ।
यथा
अंगुलीभिरिव केशसञ्चयं सन्निगृह्य तिमिरं मरीचिभिः । कुडमलीकृतसरोनलोचनं चुम्बतीव रजनीमुखं शशी ॥ ३३ ॥
न टिका हुआ [ निराश्रय ], आश्चर्यमय [ श्रनिवर्तितकौतुक ] ससार [प्रपञ्च ] स्थित है, चौदह लोकरूप लताओ के मूलरूप कूर्म स्वरूप, श्राप जगत् में श्रद्वितीय और सर्वोत्कर्षशाली० है ।
यहा 'उपमित व्याघ्रादिभि सामान्याप्रयोगे' इस सूत्र से 'लोको वल्लिरिव इति लोकवल्लि.' इस प्रकार का उपमित समास होकर 'लोकवल्लि' पद वनता है । फिर उसका कन्द के साथ पष्ठी तत्पुरुष समास होकर 'लोकवल्ल्या कन्द इति लोकवल्लिकन्द ' यह पद बनता है । इस प्रकार पहले 'लोकवल्लि' का उपमित समास होने के बाद कूर्ममूर्ति के ऊपर 'कन्द' का आरोप किया जाता है । इसलिए यह उपमाजन्य, उपमामूलक, रूपक अलङ्कार है अत 'उपमारूपक' कहलाता है । इसमे उपमा और रूपक दोनो का मिश्रण होने से 'ससृष्टि' अलङ्कार कहलाता है ।
दूसरे ढग से.विचार करे तो पहिले 'कूर्ममूर्ति' पर कन्दत्व का आरोप करके फिर लोक पर वल्लित्व का आरोप पीछे किया जाय यह भी हो सकता है । उस दशा मे यह रूपकमूलक रूपक होगा । जिसे नवीन लोग 'परम्परित रूपक' भी कहते है । परन्तु वामन ने यहा रूपक मूलक या परम्परित रूपक न मान कर उपमाजन्य रूपक माना है । इसका अभिप्राय यह है कि वामन को यहा पहिले 'लोकवल्लि' पद मे उपमित समास ही अभीप्ट है ।। ३२ ।।
उत्प्रेक्षा का हेतु [ रूपकादि दूसरा अलङ्कार ] उत्प्रेक्षावयव [ कहलाता ]
उत्प्रेक्षा का हेतु [ दूसरा श्रलङ्कार ] उत्प्रेक्षा अवयव [ कहलाता ] है । प्रवयव शब्द [ लक्षणा से ] प्रारम्भक [ इस श्रयं ] को वोधित करता है । [ उदाहरण ] जैसे—
अंगुलियो के समान [ मरीचियो ] किरणो से [ नायिका के ] केश