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सूत्र २९] चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः [२७५
समाहितमेकमवशिष्यते, तल्लक्षणार्थमाहयत्सादृश्य तत्सम्पत्तिः समाहितम् । ४, ३, २६ । यस्य वस्तुनः सादृश्यं गृह्यते तस्य वस्तुनः सम्पत्तिः समाहितम् । तन्वी मेघजलार्द्रपल्लवतया धौताधरेवाश्रुभिः शून्येवाभरणैः स्वकालविरहाद् विश्रान्तपुष्पोद्गमा । चिन्तामौनमिवास्थिता मधुलिहां शब्दैविना लक्ष्यते
चण्डी मामवधूय पादपतितं जातानुतापेव सा॥
अत्र पुरूरवसो लतायामुर्वश्याः सादृश्यं गृह्णतः सैव लतोर्वशी सम्पन्नेति ॥२६ साहित्यदर्पणकार ने सहोक्ति का लक्षण इस प्रकार किया है
सहार्थस्य वलादेक यत्र स्याद्वाचक द्वयो । ___सा सहोक्तिर्मूलभूतातिशयोक्तिनिगद्यते ॥ भामह ने सहोक्ति का लक्षण इस प्रकार नही किया है ॥ २८ ॥
[ हमारे उद्दिष्ट ३३ अर्थालङ्कारो में से ३२ के लक्षण आदि यहां तक किए जा चुके है । अब ] एक समाहित [अलङ्कार] शेष रह जाता है। उसका लक्षण करने के लिए [अगला सूत्र] कहते है।
जिस वस्तु का सादृश्य [ उपमेय में दिखलाना अभीष्ट ] है, [उपमेय को ] तद्रूपता प्राप्ति [को ] समाहित [अलङ्कार कहा जाता है।
जिस वस्तु का सादृश्य [ उपमेय में ] गृहीत होता है [उपमेय के द्वारा ] उस वस्तु [ के स्वरूप ] की प्राप्ति [को ] समाहित [अलङ्कार कहा जाता है। जैसे
तन्वी [ उर्वशी ] पैरो पर पड़े हुए मुझ [ पुरूरवा] को तिरस्कृत करके पश्चात्तापयुक्त होकर प्रांसुमो से गीले अधर के समान वर्षा के जल से आई पल्लवो को धारण किए हुए, ऋतुकाल के न होने से पुष्पोद्गम से रहित पाभरण शून्य-सी, भौंरो के शब्द के अभाव में चिन्ता से मौन को प्राप्त [ लता रूप में] दिखलाई दे रही है।
यहां लता में उर्वशी के सादृश्य को देखने [ ग्रहण करने ] वाले पुरूरवा के लिए [कल्पनावश ] उर्वशी वह लता ही बन गई है [ इसलिए यहां 'समाहित' अलङ्कार है ] ॥ २९ ॥ , साहित्यदर्पण १०, ५५ ।