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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
तुल्ययोगितायाः सहोक्तेर्भेदमाह– वस्तुद्वय क्रिययोस्तुल्यकालयोरेकपदाभिधानं
सहोक्ति । ४, ३,२८ ।
२७४ ]
[ सूत्र २८
वस्तुद्वयस्य क्रिययोस्तुल्यकालयोरेकेन पद्देनामिधानं सहार्थशब्दसामर्थ्यात् सहोक्तिः । यथा
स्तंभास्वान् प्रयातः सह रिपुभिरयं संहियन्तां बलानि । अत्रार्थयोन्यू नत्वविशिष्टत्वे न स्तः । इति नेयं तुल्ययोगिता ॥ २८॥
' प्रतिपेध इवेप्टस्य यो विशेपाभिधित्सया । आक्षेप इति त सन्त शसन्ति द्विविध यथा ॥ अह त्वा यदि नेक्षेय क्षणमप्युत्सुका तत' । इयदेवास्त्वतोऽन्येन किमुक्तेनाप्रियेण ते ॥ स्वविक्रमाक्रान्तभुवश्चित्र यन्न तवोद्धति' । को वा सेतुरल सिन्धोविकारकरण प्रति ॥ 'तुल्ययोगिता' से 'सहोक्ति' का भेद [ दिखलाने के लिए सहोक्ति अलङ्कार का लक्षण ] कहते है --
दो वस्तुओं को तुल्यकालीन [ दो ] क्रियाओं का एक [ ही ] पद से [ एक साथ ] कथन करना सहोक्ति अलङ्कार [ कहलाता ] है ।
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दो वस्तुओ की तुल्यकालीन दो क्रियाओं का एक ही पद से कथन करना सहार्थक शब्द [ के प्रयोग ] के सामर्थ्य से 'सहोक्ति' [ श्रलङ्कार कहलाता ] है । जैसे
शत्रुओ के साथ यह सूर्य [ भी ] अस्ताचल की ओर चल दिया । श्रतएव श्रव सेनाओं को वापिस कर लो ।
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भामह काव्यालङ्कार २, ६८-७० ।
[ तुल्ययोगिता श्रलङ्कार में भी दो पदार्थों में एक ही क्रिया का योग होता है । परन्तु वहां अर्थो में न्यूनाधिक भाव विवक्षित होता है । ] यहां [ सहोक्ति अलङ्कार में ] अर्थो का न्यूनाधिकत्व [ विवक्षित ] नही है इसलिए यह तुल्ययोगिता [ श्रलङ्कार ] नही है । [ श्रपितु उससे भिन्न अलङ्कार है । ]