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सूत्र २७]
चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः
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____इस अनिप्ट अर्थ की विध्याभासता रूप 'आक्षेप' अलवार का उदाहरण इम प्रकार है
गच्छ गच्छसि चेत् कान्त पन्थान सन्तु ते शिवा ।
ममापि जन्म तत्रैव भूयाद्यत्र गतो भवान् ।। यहा प्रिय का परदेश गमन नायिका को अनिष्ट है । तुम्हारे चले जाने पर मै जीवित नही रह सकूगी यह कह कर वह उसको रोकना चाहती है। परन्तु ऊपर मे 'गच्छ गच्छसि चेत् कान्त' कह कर जाने को कह रही है । साथ ही 'ममापि जन्म तत्रैव भूयाद्यत्र गतो भवान्' कह कर अपने भावी मरण की सूचना दे रही है । इस प्रकार यहां गमन का विधान वस्तुत विधि रूप नही अपितु विघ्याभास रूप है। इसलिए 'आप' अलङ्कार है। इस प्रकार नवीन आचार्यों ने 'आक्षेप' अलवार के तीन भेद माने है । परन्तु वह सब ही वामन के आक्षेप' के लक्षण से विल्कुल भिन्न है । वामन ने जो आक्षेप के दो लक्षण किए है उनको नवीन आचार्यों ने नहीं माना है। उनके दोनो उदाहरणो मे मे अन्तिम उदाहरण को 'समासोक्ति' अलङ्कार मे नवीन लोग मानते है यह अभी ऊपर दिखला चुके है । उसका पहिला भेद नवीन आचार्यों के यहाँ प्रतीप' अलवार नाम से कहा जाता है । 'प्रतीप' अलङ्कार का लक्षण माहित्यदर्पणकार ने इस प्रकार किया है
प्रसिद्धस्योपमानस्योपमेयत्वप्रकल्पनम् ।
निष्फलत्वाभिवान वा प्रतीपमिति कथ्यते । उमका उदाहरण निम्न दिया है । तद् वक्त्र यदि मुद्रिता गगिकया हा हेम मा चेद् द्युति तच्चक्षुर्यदि हारित कुवलयस्तच्चेत् स्मित का सुधा । विक् कन्दर्पधनुवौ यदि च ते किं वा बहु ब्रूमह
यत्सत्यं पुनरुक्तवस्तुविमुख सर्गक्रमो वेवम ॥ __ इस प्रकार वामन ने आक्षेपालड्वार के जो दो रूप प्रदगित किए है नवीन आचार्यों ने वह दोनो रूप 'प्रतीप' तथा 'समामोक्ति' अलवार माने है। उनके यहा आक्षेप' अल ड्कार वामन से विलकुल भिन्न रूप में माना गया है ।
वामन से प्राचीन भामह ने भी आक्षेप अलवार का जो स्वल्प माना है वह वामन मे भिन्न है ओर नवीन आचार्यों के मत में बहुत-कुछ मिलता हुआ है । भामह ने लिखा है
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१ सा० ८०, ८७।