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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र २७
'समासोक्ति समैर्यत्र कार्यलिगविशेषण ।
व्यवहारसमारोप. प्रकृतेऽन्यस्य वस्तुन । इस प्रकार किया है । यहा समान कार्य और लिग से शरद् में वेश्या अथवा नायिका और सूर्य तथा चन्द्रमा मे नायक प्रतिनायकादि के व्यवहार का आरोप होने से नवीन मत मे यह 'समासोक्ति' का उदाहरण है, 'आक्षेप' का नही । आक्षेप अलङ्कार का लक्षण नवीन आचार्यों ने बिल्कुल भिन्न प्रकार से इस प्रकार किया है
'वस्तुनो वक्तुमिष्टस्य विशेपप्रतिपत्तये ।
निपेधाभास आक्षेपो वक्ष्यमाणोक्तगो द्विधा ॥ अर्थात् जो बात कहना चाहते हो परन्तु उसमे विशेपता लाने के लिए उसका निपेध सा किया जाय उसको 'आक्षेप' अलकार कहते है। यह निषेध कही वात को कह चुकने के वाद कही हुई बात का किया जाता है । और कही आगे कही जाने वाली वात का कहे बिना पहिले ही निषेध कर दिया जाता है । इस प्रकार के निपेधसे बात की विशेपता बढ जाती है। उसी विशेष प्रतिपत्ति के लिए निपेध सा किया जाता है । इन दोनो प्रकार के आक्षेपो के उदाहरण निम्न प्रकार है
स्मरशरशतविधुराया भणामि सख्या कृते किमपि ।
क्षणमिह विश्रम्य सखे निर्दयहृदयस्य कि वदाम्यथवा ।।
यहा विरहिणी की व्यथा का सामान्यत: सूचन करने के बाद 'निर्दयहृदयस्य किं वदाम्यथवा' कह कर उसका निपेध किया गया है । इसलिए यहा उक्तविपयक 'आक्षेप' अलङ्कार है । वक्ष्यमाण विषयक 'आक्षेप' का उदाहरण इस प्रकार दिया गया है
तव विरहे हरिणाक्षी निरीक्ष्य नवमालिका दलिताम् । हन्त नितान्तमिदानीमा. किं हत जल्पितैरथवा ।।
यहा 'मरने वाली है' यह अश नही कहा है उसी वक्ष्यमाण अश का निपेध किया गया है । अतएव यह दूसरे प्रकार का 'आक्षेप' अलवार है ।
इन दो भेदो के अतिरिक्त अनिष्ट अर्थ का विध्याभास रूप एक तीसरे प्रकार के आक्षेप अलङ्कार का निरूपण भी साहित्यदर्पणकार ने किया है
अनिष्टस्य तथार्थस्य विध्याभासः परो मत ।
' सा० द० १०, ५६। २ सा० ८० १०, ६५ । ३ सा० द० १०, ६६ ।