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________________ २६८ ] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तो शरच्चन्द्रांशुगौरेण वाताविद्धेन भामिनि । काशपुष्पलवेनेदं सानुपातं मुखं कृतम् ॥ २५ ॥ - व्याजस्तुतेः पृथक् तुल्ययोगितेत्याह [ सूत्र २५ शरच्चन्द्र की किरणों के समान शुभ्र, वायु से लाए गए, काशपुष्प के तिनके ने [ श्रांख में पड़ कर ] यह मुख अश्रुपातयुक्त कर दिया । यहा सात्विक भाव से होने वाले अश्रुपात को कानपुप्प के तिनके के आख मे पड जाने से होने वाला अश्रुपात कह कर सत्य को छिपाने का यत्न किया गया है । इसलिए यहा व्याजोक्ति अलकार है । नवीन आचार्यों ने जो छिपाने योग्य बात किसी प्रकार दूसरे पर प्रकट हो जाय उसको किसी वहानें से छिपाने के प्रयत्न को व्याजोक्ति अलकार कहा है । विश्वनाथ ने उसका लक्षण इस प्रकार किया है Compan 'व्याजोक्तिर्गोपन व्याजादुद्भिन्नस्यापि वस्तुन. । जैसे---- शैलेन्द्रप्रतिपाद्यमानगिरिजाहस्तोपगूढोल्लस--- द्रोमाञ्चादिविसष्ठुलाखिलविधिव्यासङ्गभङ्गाकुलः । आः शैत्य तुहिनाचलस्य करयोरित्यचिवान् सस्मितं शैलान्त पुरमातृमण्डलगणैद् ष्टोऽवताद् व शिवः ॥ यहा शिव और पार्वती के विवाह के अवसर पर कन्यादान करने के समय, पार्वती के हाथ का गिव के हाथ से स्पर्ग होने से उनके भीतर कम्प आदि मात्विक भावो के उदय होने के कारण जब विधि में गडवड होने लगी तो अपने कम्पादि को छिपाने के लिए शिव जी पर्वतराज के आश्रय लेते है । 'आ: शैत्य तुहिनाचलस्य करयो' कह कर उस सात्विक भाव रूप यथार्थ कम्प को छिपाने का प्रयत्न किया गया है । इसलिए यहा व्याजोक्ति अलङ्कार है । वामन के लक्षण का भी अभिप्राय यही है । पर वह उतना स्पष्ट नही सात्विक हाथो की भाव जन्य शीतलता का ||२५|| व्याजस्तुति से तुल्ययोगिता [ अलङ्कार ] पृथक है यह [दिखलाने के लिए अगले सूत्र में तुल्ययोगिता का लक्षण ] कहते है- ' साहित्यदर्पण १०, ९२ ।
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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