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सूत्र २६ चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः [२६९ विशिष्टेन साम्यार्थमेककालक्रियायोगस्तुल्ययोगिता ।
४, ३, २६ । विशिष्टेन न्यूनस्य साम्यार्थमेककालायां क्रियायां योगस्तुल्ययोगिता । यथा
जलधिरशनामिमां धरित्रीं वहति भुजङ्गविमुर्भवद्भुनश्च ॥१६॥
विशिष्ट [ अधिक गुण' वाले उपमान ] के साथ [ न्यून गुण वाले उपमेय के ] साम्य [प्रतिपादन ] के लिए [ उन दोनो का ] एक काल [एक साथ ] होने वाली क्रिया के साथ योग [ सम्बन्ध प्रदर्शित करना] तुल्ययोगिता [ नामक अलङ्कार कहलाता है।
विशिष्ट [ अधिक गुण वाले उपमान ] के साथ न्यून गुण [ वाले उपमेय] के साम्य के [प्रतिपादन] के लिए [उन दोनो का] एक काल में होने वाली क्रिया में योग [ तुल्यकालीन क्रिया में योग होने के कारण ] 'तुल्य योगिता' अलङ्कार [ कहलाता है । जैसे
समुद्ररूप रशना को धारण किए हुई [चारों ओर समुद्र से घिरी हुई ] इस पृथिवी को सर्पराज [ शेषनाग ] और आपकी भुजा [ यह दोनो] धारण करते है।
यहा तुम्हारी भुजा शेषनाग के समान है इस प्रकार विशिष्ट अर्थात् अधिक गुण वाले उपमानभूत शेषनाग के साथ साम्य दिखलाने के लिए भूमि के धारण करने रूप तुल्य क्रिया, एककालीन क्रिया के साथ उन दोनो का योग किया गया है। 'धरित्री वहति भुजगविमुर्भवद्भुजश्च ।' इस प्रकार उपमानभूत शेषनाग और उपमेय भूत भुजा के साथ एक तुल्य धर्म का योग होने से यहा तुल्ययोगिता अलकार है।
भामह ने तुल्ययोगिता अलकार का जो निरूपण किया है। उसके अनुसार तुल्ययोगिता के लक्षण और उदाहरण इस प्रकार होगे
न्यूनस्यापि विभिप्टेन गुणमाम्यविवक्षया। तुल्यकार्यक्रियायोगादित्युक्ता तुल्ययोगिता ॥ शेपो हिमगिरिस्त्वञ्च महान्तो गुरव स्थिरा.। यदलघितमर्यादाञ्चलन्ती विभृथ नितिम् ॥
'भामह काव्यालङ्कार ३, २७-२८ ।