________________
चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः
-
सूत्र २५ ]
व्याजस्तुतेर्व्याजोक्ति भिन्नां दर्शयितुमाह
- व्याजस्य सत्यसारूप्यं व्याजोक्तिः । ४, ३, २५ । व्याजस्य छद्मना सत्येन सारूप्यं व्यानोक्तिः । यां मायोक्तिरित्याहुः । यथा
[ २६७
'राम. सप्ताभिनत् तालान् गिरिं क्रौञ्च भृगूत्तम । शताशेनापि भवता किं तयो सदृश कृतम् ॥
भामह तथा वामन दोनो ने केवल स्तुति के लिए की जाने वाली निन्दा को 'व्याजस्तुति' कहा है । परन्तु मम्मट विश्वनाथ आदि आचार्यो ने निन्दा के लिए की जाने वाली स्तुति को भी 'व्याजस्तुति' कहा है । साहित्यदर्पण मे 'व्याजस्तुति' का निरूपण इस प्रकार किया है-
उक्ता व्याजस्तुति पुन ।
निन्दास्तुतिम्या वाच्याभ्या गम्यत्वे स्तुतिनिन्दयो ॥
स्तुति से गम्यमान निन्दा का उदाहरण निम्न श्लोक दिया है
व्याजस्तुतिस्तव पयोद मयोदितेय यज्जीवनाय जगतस्तव जीवनानि । '
स्तोत्र तु ते महदिद घन धर्मराजसाहाय्यमर्जयसि यत् पथिकान्निहत्य |
यहा मेघ की वास्तविक स्तुति यह बतलाई गई है कि वह वियोगियो को मार कर धर्मराज-यम-का सहायक होता है । यह देखने में भले ही स्तुति हो परन्तु वह वस्तुत उसकी 'निन्दा' ही है । कही गई है ॥२४॥
इसलिए यह 'व्याजस्तुति'
व्याजस्तुति से व्याजोक्ति भिन्न [ अलङ्कार ] है [ उसको दिखलाने के लिए [ अगले सूत्र में व्याजोक्ति का लक्षण ] कहते है
व्याज [ बहाने से कही हुई बात ] का सत्य के साथ सारूप्य [ प्रदर्शित करना ] व्याजोक्ति [ अलङ्कार कहलाता ] है ।
असत्य [ व्याज ] के बहाने से सत्य का सादृश्य [ प्रतिपादन करना ] व्याजोक्ति [ अलकार कहलाता ] है । जिसको अन्य लोग 'मायोक्ति' कहते है । [ उसका उदाहरण ] जैसे-
"भामह काव्यालङ्कार ३, ३२ ।
१
साहित्यदर्पण १०, ६० ।