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सूत्र १६ ]
चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः
[२५१
यथा वा
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" विहाय साहार महार्यनिश्चया विलोलदृष्टिः प्रविलुप्तचन्दना । बबन्ध बालारुणबभ्रु वल्कलं पयोधरोत्सेधविशीर्ण संहति ॥ १६ ॥
श्रथवा जैसे
उस दृढ़ निश्चय वाली और चन्दन | आदि श्रृङ्गार या लेपन द्रव्य ] से रहित चपलनयनी [ पार्वती ] ने [ शिव प्राप्ति की तपस्या के लिए ] भोजन छोड कर [ निराहार व्रत करके ] प्रात कालीन सूर्य के समान अरुण वर्ण और स्तनों की उठान के कारण [ वक्षः स्थल पर ] जिसकी सन्धि खुली जा रही है इस प्रकार के वल्कल [ वस्त्र ] को धारण किया ।
इन दोनो उदाहरणो में से पहले उदाहरण में सम से विनिमय और दूसरे में विसदृश से विनिमय दिखलाया गया है। पहले श्लोक में चरण, किसलय के समान है इसलिए उन दोनो का साम्य होने से समविनिमय का उदाहरण है । नायिका ने कर्ण किसलय लेकर उसको चरण अर्पण किया किस प्रकार किया इसके उपपादन के लिए कामशास्त्र के ' प्रसारितक' नामक करण विशेष का निर्देश टीकाकार ने किया है । वात्स्यायन 'कामसूत्र' मेंनायकस्यासे एको द्वितीय प्रसारित इति प्रसारितकम् ।
यह 'प्रसारितक' का लक्षण किया है । 'रति रहस्य' में इसकी व्याख्या इस प्रकार की है -
प्रियस्य वक्षोऽसतल शिरोधरां नयेत सव्य चरण नितम्बिनी । प्रसारयेद् वा परमायत पुनर्विपर्यय स्यादिति हि प्रसारितम् ॥ कामशास्त्र के इस ' प्रसारित' नामक करण के द्वारा चरण और करणं किसलय का विनिमय हो सकता है ।
दूसरे श्लोक में भोजन का परित्याग कर उनके बदले में वल्कल को धारण किया यह जो विनिमय दिखलाया गया है। उसमें वल्कल तथा भोजन मे कोई साम्य नही है | इसलिए वह विसदृश विनिमय का उदाहरण है । भामह ने इस परिवृत्ति श्रलङ्कार का लक्षण इस प्रकार किया है• विशिष्टस्य यदादानमन्यापोहेन वस्तुन । श्रर्थान्तरन्यासवती परिवृत्तिरसी यथा ॥
१ कुमारसम्भव ५, ८ में 'विहाय' के स्थान पर 'विमुच्य' पाठ है | ૧ भामह काव्यालङ्कार ३, ३६ ।