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सूत्र८] चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः
[२३७ 'परिम्लानच्छायामनुवदति दृष्टिः कमलिनीम् ।'
'प्रत्यूषेषु स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः।' ___'ऊरद्वन्द्वं तरुणकदलीकाण्डसब्रह्मचारि ।'
इत्येवमादिषु लक्षणार्थो निरूप्यत इति । लक्षणायाञ्च झटित्यर्थप्रतिपत्तिक्षमत्वं रहस्यमाचक्षत इति । असादृश्यनिबन्धना तु लक्षण न वक्रोक्तिः । यथा
'जरठकमलकन्दच्छेदगौरैमयूखैः । अत्र 'छेदः' सामीप्याद् द्रव्यं लक्षयति । तस्यैव गौरत्वोपपत्तेः ॥८॥
[दुःखित नायिका की दृष्टि मुरझाई हुई कमलिनी के समान है। [यहां 'अनुवदति' पद सादृश्य लक्षणा से कमलिनी के साथ समानता का सूचक है ।
प्रात.काल के समय में खिले हुए कमलो के सुगन्ध के साथ मैत्री के कारण कषाय [ वायु चल रहा है । इसमें मंत्री पद सादृश्य लक्षणा से संसर्ग को लक्षित करता है।
[ नायिका की ] दोनों जघाएं तरुण कदली काण्ड की सहाध्यायिनी है। [यहां 'सब्रह्मचारि' पद लक्षणा से सादृश्य को लक्षित करता है] ।
__ इत्यादि [ उदाहरणो] में [धर्म को प्रतीति के लिए | लक्षणा से अर्थ का कथन किया जाता है । लक्षणा के होने पर तुरन्त अर्थ को प्रतीति की क्षमता प्रा जाती है यही लक्षएा का रहस्य [ लक्षणा अथवा वक्रोक्ति अलड्डार मानने वाले ] कहते है।
असादृश्य [ सादृश्य से भिन्न ] निमित्तक लक्षणा 'वक्रोक्ति' नहीं कहलाती। जैसे
पुराने पके हुए ] कमल की जड़ [ भसीण्डे, मृणालदण्ड ] के टुकड़े के समान [गौर ] सफेद किरणो से ।
यहां 'छेद' [पद ] सामीप्य [अर्थात् धर्ममिभाव सम्बन्ध ] से [खण्डरूप ] द्रव्य को लक्षित करता है । उस [ खण्ड रूप द्रव्य ] में ही गौरत्व सम्भव होने से [ इसका अभिप्राय यह है कि 'छेद' शब्द मुत्य रूप से छेदनक्रिया का बोधक है। परन्तु यहां वह छेदन-क्रिया का प्राधारभूत या कर्मभूत