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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
सम्प्रत्युपमाप्रपञ्चो विचार्यते । कः पुनरसावित्याहप्रतिवस्तुप्रभृतिरुपमाप्रपञ्चः । ४, ३, १ ।
[ सूत्र १
प्रतिवस्तु प्रभृतिर्यस्य स प्रतिवस्तुप्रभृतिः । उपमायाः प्रपञ्च उपमाप्रपन्न इति ॥ १ ॥
शतधा जयदेवेन विभक्तो, दीक्षितेन च ।
कृता भेदा' पुनस्तस्य सशत चतुर्विंशतिः ॥ ६ ॥
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इस प्रकार साहित्यशास्त्र के श्राकर ग्रन्थो में भी अलङ्कारो को सख्या के विषय मे बहुत भेद पाया जाता है । इन श्राचार्यों में से प्रकृत ग्रन्थकार श्री वामन ने दो शब्दालङ्कारो के अतिरिक्त ३० अर्थालङ्कारो को माना है । इस अध्याय में उन्ही ३० अर्थालङ्कारों का वर्णन है ।
अब उपमा के प्रपञ्च [ भूत ३० प्रकार के प्रर्थालङ्कारों ] का विचार किया जाता है । वह [ उपमा प्रपञ्च ] कौन सा [ कौन कौन से अलङ्कार इस उपमा प्रपञ्च में सम्मिलित होते ] है यह [ प्रथम सूत्र में ] कहते है ।
प्रतिवस्तु [ प्रतिवस्तूपमा ] इत्यादि [ आगे कहे जाने वाले ३० अलङ्कार ] उपमा का प्रपञ्च [ कहे जाते ] है ।
प्रतिवस्तु [ प्रतिवस्तूपमा ] जिस के श्रादि में है वह [ तद्गुण संविज्ञान बहुव्रीहि समास मान कर प्रतिवस्तूपमा सहित ३० श्रर्थालङ्कार ] 'प्रतिवस्तुप्रभृति' हुए। उपमा का प्रपञ्च [ विस्तार ] उपमा प्रपञ्च [ यह षष्ठी तत्पुरुष समास से ] है । [ प्रतिवस्तु प्रभृति वह ३० प्रर्थालङ्कार हम अभी ऊपर दिखला चुके है ] ॥१॥
अगले सूत्र से इस उपमा-प्रपञ्च का निरूपण प्रारम्भ करते हुए सबसे पहिले 'प्रतिवस्तूपमा' का लक्षरण करते है । 'प्रतिवस्तूपमा' उपमा का ही प्रपञ्च है इसलिए उपमा के अन्य भेदो से उसका जो विशेष भेद है उसको दिखलाते हुए उसका लक्षण करेगे । अभी पिछले अध्याय मे पदार्थ और वाक्यार्थवृत्ति उपमो के दो भेद किए थे । उनमें से 'प्रतिवस्तूपमा' और 'वाक्यार्थ उपमा' मे बहुत कुछ सादृश्य होने से उन दोनो के विशेष भेद को प्रदर्शित करने की भावश्यकता समझ कर ग्रन्थकार 'वाक्यार्थ उपमा' से 'प्रतिवस्तूपमा' का भेद दिखाते हुए उसका लक्षरण करते है
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