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'आलङ्कारिक' नानि चतुर्थेऽधिकरणे
तृतीयोऽध्यायः । उपमाप्रपञ्चविचारः] चतुर्थाधिकरण में तृतीयाध्याय
[उपमा-प्रपञ्च का विचार ] चतुर्थ अधिकरण के प्रथम अध्याय में अनुप्रास तथा यमक रूप दो शब्दालङ्कारो का और द्वितीयाध्याय मे उपमालङ्कार का विचार करने के बाद अब इस तीसरे अध्याय में वामन अपने अभिमत अलङ्कारो का निरूपण प्रारम्भ करने जा रहे है । इन सब अलङ्कारो को वह उपमा का ही प्रपञ्चमात्र मानते है । इसलिए इस अध्याय मे उन्होने उपमा के प्रपञ्चभत इन अलङ्कारो के निरूपण की प्रतिज्ञा की है। वामन के अभिमत इन अलङ्कारो की संख्या ३० है । उनका सग्रह काव्यालङ्कार-सूत्रवृत्ति के टीकाकार गोपेन्द्र त्रिपुरहरभूपाल ने इस प्रकार किया है
प्रतिवस्तुप्रभृतय उद्दिश्यन्ते यथाक्रमम् । प्रतिवस्तु समासोक्तिरथाप्रस्तुतशसनम् ॥ अपह्न ती रूपकञ्च श्लेषो वक्रोक्त्यलंकृति.। उत्प्रेक्षाऽतिशयोक्तिश्च सन्देह सविरोधक' ॥ विभावनाऽनन्वयः स्यादुपमेयोपमा तत· । परिवृत्ति. क्रम. पश्चाद् दीपक च निदर्शना ।। अर्थान्तरस्य न्यसन व्यत्तिरेकस्तत परम् । २ विशेपोक्तिरथ व्याजस्तुतियाजोक्त्यलकृतिः ॥ स्यात्तुल्ययोगिताक्षेप सहोक्तिश्च समासत । अथ ससृष्टिभेदी द्वौ उपमारूपक तथा ॥ उत्प्रेक्षावयवश्चेति विज्ञेयोऽलकृतिक्रम । १
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इस प्रकार वामन ने ३० प्रकार के अलङ्कारो का निरूपण किया है। अनुप्रास तथा यमक दो प्रकार के शब्दालङ्कार इन से भिन्न है । उनको भी जोड देने पर वामनाभिमत काव्यालङ्कारो की कुल संख्या ३२ होगी।
अलङ्कारो की संख्या के विषय में प्राचीन समय से पालद्वारिक प्राचार्यों