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सूत्र २१ ] चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२१६ कथं तर्हि दोष इत्यत आह
न विरुद्धोऽतिशय. । ४, २, २१ । विरुद्धस्थातिशयस्य संग्रहो न कर्तव्य इति, अस्य सूत्रस्य तात्पर्यार्थः । तानेतान् षडुपमा-दोषान् ज्ञात्वा कविः परित्यजेत् ॥ २१ ॥
इति पण्डितवरवामनविरचितकाव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती 'पालद्वारिके' चतुर्थेऽधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः ।
उपमाविचारः।
[प्रश्न] यदि 'उन्निद्रस्यारविन्दस्य मध्ये मुग्धेव चन्द्रिका' कह कर कवि अपनी उपमा में कुछ वैशिष्टय प्रतिपादन कर रहा है ] तो फिर [ यह ] दोष कैसे होगा। [तब तो वह दोष नहीं गुण होगा । आप उसको दोष कसे कहते है ?]
[उत्तर ] विरुद्ध अतिशय [ का प्रदर्शन ] नहीं [फरना ] चाहिए ।
[अनुभव अथवा प्रकृति के ] विरुद्ध प्रतिशय का वर्णन नहीं करना चाहिए। यहां कवि ने उपमा में अतिशय लाने के लिए प्रकृतिविरुद्ध वात का संग्रह अपनी उपमा में कर दिया है इसलिए यह दोष हो गया है और वह उपमा दोष ही है ] यह इस सूत्र का तात्पर्य है ॥
इन छ: प्रकार के उपमा-दोषो को जान कर कवि उनका परित्याग [करने का प्रयत्न करे ॥२१॥
___ इति श्री पण्डितवरवामनविरचित काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति में चतुर्थ 'पालङ्कारिक' अधिकरण में द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ।
उपमा-विचार समाप्त हुआ।
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श्रीमदाचार्यविश्वेश्वरसिद्धान्तशिरोमणिविरचितायां
'काव्यालङ्कारदीपिकाया' हिन्दीव्याख्याया चतुर्थे 'पालङ्कारिकाधिकरणे' द्वितीयोऽध्याय समाप्त. ।
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