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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
अनुपपत्तिरसम्भवः ४ २, २० ।
अनुपपत्तिरनुपन्नत्वमुपमानस्यासम्भवः । यथा— चकास्ति वदनस्यान्तः स्मितच्छायाविकासिनः । उन्निद्रस्यारविन्दस्य मध्ये मुग्धेव चन्द्रिका ||
[ सूत्र २०
चन्द्रिकायामुन्निद्रत्वमरविन्दस्येत्यनुपपत्तिः । नन्वर्थविरोधोऽयमस्तु किमुपमादोषकल्पनया । न । उपमायामतिशयस्येष्टत्वात् ॥ २० ॥
दो बार के प्रयोग से ] अर्थ की पुष्टि नही होती है । [ इन दोनो में से पहली बार का सिन्धु शब्द का प्रयोग व्यर्थ है क्योंकि ] 'सिन्धुरिव क्षुभित:' इससे ही [ सैन्य की ] विपुलता [ और क्षोभ दोनो ] की प्रतीति [ प्रतिपत्ति ] हो जावेगी । जैसा कि 'धर्मयोरेकनिर्देशेऽन्यस्य संवित् साहचर्यात्' [४, २, १० सूत्र में अभी ] कह चुके है । [ समुद्र का वैपुल्य और क्षोभ दोनो सहचरित धर्म है । उनमें से 'सिन्धुरिव क्षुभितः' कह कर जब क्षोभ का प्रतिपादन करते है तो उसके साथ वैपुल्य भी स्वयं प्रतीत हो जाता है । अतएव वैपुल्य सूचन के लिए प्रथम / सिन्धु शब्द का प्रयोग व्यर्थ है औौर श्रपुष्टार्थ दोषग्रस्त है ] ॥ १६ ॥
अगले दो सूत्रो में छठे उपमा - दोष 'असम्भव' का निरूपण करते है । [ उपमान की ] अनुपपत्ति [ ही ] 'असम्भव' [ नामक उपमा- दोष ] है । अनुपपत्ति [ प्रर्थात् ] उपमान का अनुपपन्नत्व 'असम्भव' [ नामक छठा उपमा- दोष ] है । जैसे—
खिले हुए कमल के भीतर सुन्दर चॉदनी के समान [ नायिका के खिले हुए मुख के भीतर मुस्कराहट को छाया चमक रही है ।
[ इस उदाहरण में खिले हुए कमल के भीतर चांदनी का वर्णन है । परन्तु चांदनी में तो कमल खिलता ही नहीं । कमल तो दिन में खिलता है रात्रि में नही। ऐसे में चॉदनी का सम्बन्ध बताना अनुपपन्न है । क्योंकि ] चाँदनी [ खिलने के समय श्रर्थात् रात्रि ] में कमल का खिलना अनुपपन्न है [ इसलिए इस उपमा में असम्भवत्व दोष है ] ।
[प्रश्न ] यहाँ अर्थ-विरोध [ नामक सामान्य दोष ] मान लो, [ असम्भव नामक ] उपमा- दोष की कल्पना से क्या लाभ ?
[ उत्तर ] यह कहना ठीक नहीं है । क्योकि [ इस प्रयोग से कवि को अपनी ] उपमा में विशेषता [ प्रतिपादन करना ] इष्ट है । [ इसलिए इसको सामान्य दोष न मान कर उपमा-दोष ही कहना चाहिए ] ॥ २० ॥