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सूत्र १९ ]
चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
ननु सिन्धुशब्दस्य द्विः प्रयोगात् पौनरुक्त्यम् ।
न । अर्थविशेषात् । बलं सिन्धुरिव वैपुल्याद् बलसिन्धुः । सिन्धुरिव चुमितः इति क्षोभसारूप्यात् । तस्मादर्थभेदान्न पौनरुक्त्यम् । अर्थपुष्टिस्तु नास्ति । सिन्धुरिव तुभित इत्यनेनैव वैपुल्यं प्रतिपत्स्यते । उक्तं हि "धर्मयोरेकनिर्देशेऽन्यस्य संवित् साहचर्यात' ॥ १६ ॥
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उपमान का सख्यागत प्राधिक्य हुम्रा इसलिए यहां असादृश्य रूप उपमा- दोष नही होता है । अर्थात् यहाँ प्रसादृश्य के प्रपोह या निवारण के लिए ही सिन्धु रूप उपमान का दो बार प्रयोग किया गया है । यह पूर्व पक्ष का आशय हुआ । उत्तर पक्ष का कहना यह है कि यहाँ सिन्धु शब्द के दुवारा प्रयोग से अर्थ की कोई पुष्टि नही होती है इसलिए सिन्धु शब्द का दुवारा प्रयोग व्यर्थ और दोषग्रस्त ही है ।
इस पर शङ्का यह होती है कि अच्छा यदि सिन्धु शब्द के प्रयोग में दोष है तो वह पुनरुक्ति दोष हो सकता है । असोदृश्य दोष नही हो सकता है । इसका भी सिद्धान्त पक्ष की ओर से खण्डन किया जा रहा है। उसका अभिप्राय यह है कि यहाँ सिन्धु गब्द का दो वार प्रयोग होने पर भी पुनरुक्ति दोष नही होता है क्योकि उन दोनो के अर्थ में भेद है । पहिली बार के प्रयोग से 'बल सिन्धुरिव वलसिन्धु:' इस से वल की विपुलता सूचित होती है । और 'सिन्धुरिव क्षुभित.' इस प्रश से क्षोभ बाहुल्य सूचित होता है इसलिए अर्थभेद होने से पुनरक्ति दोप तो नही है । किन्तु प्रपुष्टार्थता दोष अथवा तन्मूलक प्रसादृश्य दोष ही कहा जा सकता है ।
[प्रश्न ] 'सिन्धु' शब्द का [ 'बलसिन्धुः सिन्धुरिव क्षुभित:' इस उदाहरा में ] दो बार प्रयोग होने से [ इस श्लोक के अंश में ] पुनरुक्ति दोष हो सकता है।
[ उत्तर ] नहीं [ यहाँ पुनरुक्ति दोष ] अर्थभेद के कारण नही हो सकता है । 'बलं सिन्धुरिव' [ इस विग्रह में ] विपुलता [ के सूचित ] होने से 'वलसिन्धु' [ बल अर्थात् सैन्य को विशालता को बोधित करता है ] और 'सिन्धुरिव क्षुभित:' में [ यह दूसरी बार सिन्धु शब्द का प्रयोग ] क्षोभरूपता [ का सूचक होने ] से । [ उन दोनो में अर्थभेद है ] सलिए श्रर्थभेद होने से [ सिन्धु रूप उपमान का दो बार प्रयोग होने पर भी ] पुनरुक्ति नहीं है। किन्तु [ उस
'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति ४, २, १० ।