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________________ फाव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ [ सूत्र १६ कर्पूरादिभिरुपमानैर्बहुभिः सादृश्यं यशसः सुस्थापितं भवति । २१६ ] तेषां शुक्लगुणातिरेकात् ॥ १८ ॥ नापुष्टार्थत्वात् । ४, २, १६ । उपमानाधिक्यात् तदपोह इति यदुक्तं तन्न । अष्टार्थत्वात् । एकस्मिन्नुपमाने प्रयुक्ते उपमानान्तरप्रयोगो न कश्चिदर्थविशेषं पुष्णाति । तेन 'बल सिन्धुः सिन्धुरिव तुभितः ' इति प्रत्युक्तम् । है । जैसा - तुम्हारा यश कर्पूर, [ मुक्ता ] हार, और शिवहास के समान शुभ्र है । [ इस उदाहरण मे ] कर्पूर आदि अनेक उपमानो से यश का [ उनके साथ शुक्लातिशय रूप ] सादृश्य भली प्रकार स्थापित होता है । उन [ कर्पूर, मुक्ताहार और हरहास- शिवहास्य ] में शुक्ल गुण का बाहुल्य होने से [ यश में भी उसी प्रकार का शुक्लातिशय है यह बात प्रतीत होती है । इस प्रकार उपमान के आधिक्य से प्रसादृश्य का प्रपोह हो जाता है यह पूर्वपक्ष का अभिप्राय हुआ ] ॥ १८ ॥ इस पूर्वपक्ष का उत्तर प्रगले सूत्र में करते है । [ आपका कहना ] ठीक नही है । [ उपमानो की संख्या में आधिक्य कर देने पर भी ] अर्थ की पुष्टि [ सम्भव ] न होने से । । उपमान [ की संख्या में ] का प्राधिक्य होने से उस [ प्रतीत गुणमूलक असादृश्य रूप उपमा- दोष ] का परिमार्जन [ अपोह, दूरीकरण ] हो जाता है यह जो [ पूर्वपक्षी ने ] कहा है, वह ठीक नहीं है [ उपमानों की संख्यावृद्धि से ] श्रर्थ की पुष्टि न होने से। एक उपमान के प्रयुक्त होने पर [ यदि सादृश्य स्पष्ट रूप से प्रतीत नही होता है तो उसी प्रकार के ] धन्य उपमानों का प्रयोग भी किसी प्रर्थविशेष का पोषक नही होता । [ उन उपमानों की उस संख्यावृद्धि से भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है ] इसलिए'सैन्यसागर, सागर के समान क्षुब्ध हो गया ।' यह [ उदाहरण भी ] खण्डित हो गया । इसका अभिप्राय यह है कि इस उदाहरण मे बल अर्थात् सैन्य की उपमा सिन्धु अर्थात् सागर से दी गई है । अर्थात् 'बल' उपमेय है और 'सिन्धु' उपमान है । परन्तु सिन्धु रूप उपमान का दो बार प्रयोग किया गया है। इसलिए इसमें
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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