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चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
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उपमानाधिक्यात् तदपोह इत्येके । ४, २, १८ । उपमानाधिक्यात् तस्याऽसादृश्यस्याऽपोह इत्येके मन्यन्ते । यथाकर्पूरहारहरहाससितं यशस्ते ।
सूत्र १८ ]
करने वाले ] कवि भी मारे जाते है [ यश और प्रतिष्ठा से वञ्चित रहते हैं ] ॥ १७ ॥
इस प्रकार के असादृश्य दोष के निवारण के लिए कुछ लोग यह कहते है कि जहा एक उपमान से सादृश्य प्रतीत नही होता है वहा यदि अनेक उपमान रख दिए जावें तो वह प्रतीत न होने वाला सादृश्य स्फुट रूप से प्रतीत होने लगता है और वह असादृश्य दोष नही रहता । जैसे—यश की उपमा कोई कर्पूर से दे तो शायद काव्य और शशि के सादृश्य के समान कर्पूर और यश का सादृश्य भी प्रतीत न हो। परन्तु उसी सादृश्य के स्पष्टीकररण के लिए यदि केवल कर्पूर के बजाय उसी प्रकार के अनेक उपमान एक साथ जोड कर 'कर्पू' रहारहर हाससित यशस्ते' कहा जाय तो अनेक उपमानो से उनका शुक्लता रूप सादृग्य स्पष्ट हो जायगा ।
परन्तु सिद्धान्त पक्ष मे प्राचार्य वामन इस बात से सहमत नही है । उनके मत में जहा एक उपमान से सादृश्य स्पष्ट नही होता है तो उस प्रकार के अनेक उपमानो से भी उसकी पुष्टि नही हो सकती है । 'कर्पू रहा रहरहाससित यशस्ते' । इस उदाहरण मे 'यश' का 'कपूर' आदि के साथ सादृश्य तो 'सित' पद से स्वय उपात्त है । वह अनेक उपमानो के कारण प्रतीत नही होता है अपितु शब्दत. प्रतिपादित होने से ही प्रतीत होता है । इसलिए उपमानो के प्राधिक्य से असादृश्य दोष का प्रपोह या परिमार्जन हो जाता है यह कहना ठीक नही है ।
इसी विषय का प्रतिपादन करने के लिए ग्रन्थकार ने अगले दो सूत्र लिखे है । पहिले सूत्र मे पूर्वपक्ष दिखाया है और दूसरे सूत्र मे उसका उत्तर दिया है ।
उपमानो [ की संख्या ] के प्राधिक्य से उस [ अप्रतीत-सादृश्यमूलक प्रसादृश्य रूप उपमादोष ] का परिमार्जन [ पोह-दूरीकरण ] हो जाता है यह कुछ लोग कहते है ।
उपमान के [संख्याकृत] प्राधिक्य से उस प्रसादृश्य [ रूप उपमादोष ] का [ पोह ] परिमार्जन [ दूरीकरण ] हो जाता है ऐसा कुछ विद्वान् मानते