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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
धर्माधिक्यरूपं यथा
सरश्मि चञ्चलं चक्रं दधद् देवो व्यराजत । सवाडवाग्निः सावर्तः स्रोतसामिव नायकः ॥ सवाडवाग्निरित्यस्योपमेयेऽभावाद् धर्माधिक्यमिति ।
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[ सूत्र ११
[ ऊँचे ] और यह वेणी दण्ड [ केशपाश ] यमुना की धारा के समान [ काले ] है ।
[ इन तीनों उपमानों में उपमान में परिमाणगत आधिक्य है । पाताल से नाभि की, और पर्वत से स्तन की उपमा देना अत्यन्त प्रसङ्गत है । इसलिए उपमान में मर्यादा को अतिक्रमण करने वाला परिमाणगत प्राधिक्य होने के कारण 'अधिकत्व' रूप उपमा- दोष है ] ।
धर्माधिक्य रूप [ श्रधिकत्व दोष का उदाहरण ] जैसे
रश्मियो से युक्त चञ्चल चक्र को धारण किए विष्णु, वडवानल और [ श्रावर्त ] भंवर से युक्त [ नदीपति ] समुद्र के समान सुशोभित हुए ।
इसमे 'विष्णु' उपमेय और 'समुद्र' उपमान है। विष्णु चक्र को धारण किए हैं, और समुद्र प्रावर्त युक्त है । चत्र के दो विशेषरण 'सरश्मि' और 'चञ्चल' उपमेय पक्ष में है । पर उपमान पक्ष मे केवल 'सवाडवाग्नि' एक विशेषण है वह भी चक्र स्थानीय 'प्रावर्त' का नही अपितु स्वयं उपमानभूत समुद्र का । इसलिए वास्तव में यहाँ उपमानगत धर्म की न्यूनता प्रतीत होती है । परन्तु ग्रन्थकार ने इसे उपमानगत धर्माधिक्य का उदाहरण दिया है। उसकी सङ्गति इस प्रकार लगती है कि उपमेय पक्ष मे 'सरश्मि' तथा 'चञ्चल' यह दोनो विशेषरण केवल चक्र के है । मुख्य उपमेयभूत देव का केवल एक विशेषण है । परन्तु उपमान पक्ष में मुख्य उपमानभूत समुद्र के दो विशेषण है । इनमे से उपमान के प्रावर्त के स्थान पर उपमेय पक्ष में चक्र है । परन्तु उपमान के दूसरे विशेषरण 'सवाडवाग्नि' के स्थान पर उपमेय पक्ष में कोई धर्म दिखाई नही देत । । इसलिए यह उपमानगत धर्माधिक्य का उदाहरण हो सकता है । इसी बात को वृत्तिकार स्पष्ट करते है ।
सवाडवाग्नि इस [ उपमानगत धर्म के समकक्ष किसी धर्म ] के उपमेय [ देव पक्ष ] में न होने से [ उपमान में ] धर्म का प्राधिक्य है । [ श्रतएव यहाँ 'प्रषिकत्व' रूप उपमा दोष विद्यमान है ] ।