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सूत्र ११] चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२०६
__ अनयोर्दोषयोविपर्ययाख्यस्य दोषस्यान्तमोवान्न पृथगुपादानम् । अत एवास्माकं मते षड् दोषा इति ॥ ११ ॥
इस प्रकार ग्रन्थकार ने 'हीनत्व' और 'अधिकत्व' दोप को यह व्याख्या की है कि उपमान को जाति, प्रमाण और धर्मगत न्यूनता होने पर 'हीनत्व' तथा अधिकता होने पर अधिकत्व' दोष होता है। अर्थात् 'हीनत्व' तथा 'अधिकत्व' दोनो जगह उपमान मे ही धर्म आदि की न्यूनता या अधिकता गिनी गई है। उपमेयगत हीनता या अधिकता का विचार नही किया गया है। इससे किसी के मन में यह शङ्का हो सकती है कि उपमेयगत हीनत्व और अधिकत्व के आधार पर ही दो दोष और भी मानने चाहिए। इस प्रकार उपमा दोषो की सख्या ६ के स्थान पर पाठ हो जानी चाहिए। इस शङ्का का समाधान ग्रन्थकार अगली पक्ति में यह करते है कि उपमान की अधिकता तभी होगी जव उपमेय मे हीनता हो। इसी प्रकार उपमान मे हीनता तभी होगी जब उपमेय में प्राधिक्य हो। इसलिए उपमानगत हीनता और अधिकता में ही उपमेयगत हीनता और अधिकता का अन्तर्भाव हो जाने से उसके प्रतिपादन के लिए अलग दोष दिखलाने की आवश्यकता नही है और उपमा के छ दोष मानना ही उचित है । पाठ दोष मानने की आवश्यकता नही है। इसी बात को वृत्ति में कहते है।
इन दोनो दोषो के विपर्यय [अर्थात् उपमेयगत हीनत्व तथा उपमेयगत अधिकत्व ] नामक दोष का इन्हीं [ उपमानगत हीनत्व तथा अषिकत्व ] में अन्तर्भाव हो जाने से अलग ग्रहण [ प्रतिपादन] करने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए हमारे मत में [ऊपर गिनाए हुए ] छः [ही उपमा के ] दोष है [अधिक नहीं।
इस प्रकार वामन ने हीनत्व और अधिकत्व नाम से जो उपमा के दोप प्रतिपादन किए है उनको वामन के उत्तरवर्ती प्राचार्य विश्वनाथ आदि अलग मानने की आवश्यकता नहीं समझते है। विश्वनाथ ने इन दोनो दोषो का अन्तर्भाव अनुचितार्थता' दोष में कर लिया है। इसलिए न केवल इन दोनो का अपितु असादृश्य तथा असम्भव दोषो का भी अनुचितार्थत्व दोष में अन्तर्भाव करते हुए वह लिखते है
"उपमायामसादृश्यासम्भवयो, जातिप्रमाणगतन्यूनत्वाधिकत्वयो, अर्थान्तरन्यासे उत्प्रेषितार्थसमर्थने चानुचितार्थत्वम् ।" ॥ ११ ॥ 'साहित्यदर्पण ७-१६॥