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सूत्र ११] चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२०७
तेनाधिकत्व व्याख्यातम् । ४, २, ११।। तेन हीनत्वेनाधिकत्वं व्याख्यातम् । जातिप्रमाणधर्माधिक्यमधिकत्वमिति । नात्याधिक्यरूपमधिकत्वं यथा
विशन्तु विष्टयः शीघ्र रुद्रा। इव महौजसः । प्रमाणाधिक्यरूपं यथा
पातालमिव नाभिस्ते स्तनौ क्षितिधरोपमौ । वेणीदण्डः पुनरय कालिन्दीपातसन्निभः ॥
पृष्ट कोविदारानाचष्टे' के समान बात हुई । इसलिए यह उत्तर ठीक नही है ॥ १०॥
उपमागत हीनत्व दोष की व्याख्या कर चुकने के बाद ग्रन्थकार दूसरे उपमादोष 'अधिकत्व' का निरूपण अगले सूत्र में करते है
इस [ हीनत्व दोष की व्याख्या] से अधिकत्व [ दोष ] को व्याख्या [भी ] हो गई [ समझना चाहिए।
___ उस होनत्व [ की व्याख्या से प्राधकत्व की व्याख्या हो गई। [अर्थात् जैसे हीनत्व तीन प्रकार का होता है इसी प्रकार ] नाति, प्रमाण और धर्म के [उपमेय की अपेक्षा उपमान में अधिक होने पर अधिकत्व [दोष ] होता है । जात्याधिक्य रूप अधिकत्व [का उदाहरण] जैसे
रुख [शिव ] के समान महापराक्रमी कहार ["विष्टिः कारो कर्मकरें इति वैजयन्ती] शीघ्र भीतर आ जावें।
यहाँ 'कहार' उपमेय है 'रुद्र' उपमान है । 'महौजसत्व' साधारण धर्म तथा 'इव' उपमा वाचक शब्द है। इन चारो के विद्यमान होने से यह पूर्णोपमा है। इसमें 'उपमानभूत रुद्र' में 'उपमेयभूत कहार' की अपेक्षा जातिगत प्राधिक्य होने से 'अधिकत्व' दोष है । यो तो उपमान में उपमेय की अपेक्षा प्राधिक्य होता ही है परन्तु वह मर्यादा से अधिक नहीं होना चाहिए। शिव से कहार की उपमा देने में मर्यादा का प्रतिक्रमण कर दिया गया है। इसलिए दोष है।
प्रमाणाधिक्य रूप [अधिकत्व दोष का उदाहरण ] जैसेतुम्हारी नाभि पाताल के समान [गहरी ], स्तन पहाड़ के समान