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२०६] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
- [सूत्र १० सूर्याशुसम्मीलितलोचनेषु दीनेषु पद्मानिलनिर्मदेषु ।। साध्व्यः स्वगेहेष्विव भत हीनाः केका विनेशुः शिखिनां मुखेष ॥
अत्र बहुत्वमुपमेयधर्माणामुपमानात् ।
न, विशिष्टानामेव मुखानामुपमेयत्वात् । तादृशेष्वेव केकाविनाशस्य सम्भवात् ॥१०॥ इसी प्रकार वर्षा ऋतु के बीत जाने पर मोरो की केका ध्वनि उनके मुखो में ही लीन हो गई। इसी बात को कवि कहता है
[शरद् ऋतु मे ] सूर्य की किरणों [ के असह्य होने ] से मुंदी हुई प्रांखों वाले और कमलो [ को स्पर्श करके प्राने वाली शरत्काल ] की वायु से मद रहित [अतएव ] दीन मयूरों के मुखो में [ उनकी ] केका [ध्वनि ] इस प्रकार लुप्त [ण प्रदर्शने ] हो गई जैसे भर्तृ विहीना पतिव्रता स्त्रियां अपने घरों में ही लीन हो जाती है [बाहर नहीं निकलती। इसी प्रकार मोरों की केका ध्वनि उनके मुखो में ही लीन हो गई बाहर नहीं निकल रही है।
[शङ्का] इस [ 'साध्व्यः स्वगेहेष्विव भर्तृ होना' ] में उपमान को अपेक्षा उपमेय के धर्मों का बहुत्व [१. सूर्याशुसम्मीलितलोचनेष, २. 'पद्मानिलनिर्मवेषु' और ३ 'दीनेषु' इन तीन विशेषण युक्त होने से ] है। [अर्थात् उपमान में धर्मन्यूनता होने से इसको भी 'हीनत्व' दोष प्रस्त मानना चाहिए।
उत्तर-प्रन्थकार इस प्रश्न का उत्तर देते है] यह कहना ठीक नहीं है। [ यहा तीनो विशेषणो से विशिष्ट मुखो का ही उपमेयत्व है । उसी प्रकार के [ 'सूर्यांशुसम्मीलितलोचनेषु' प्रादि तीनों विशेषणो से युक्त ] मुखो में केका ध्वनि का विनाश सम्भव होने से [ यह दोष नहीं है ।
ग्रन्थकार का यह समाधान प्रसङ्गत सा प्रतीत होता है । प्रश्नकर्ता ने भी यही कहा था कि यहा उपमेय अनेक धर्मो से विशिष्ट है परन्तु उपमान उन धर्मों से विशिष्ट नहीं है इसलिए उपमान मे धर्मन्यूनता होने के कारण यहा दोष मानना चाहिए । समाधान करते समय यह दिखलाना चाहिए था कि उपमान भी उन धर्मों से युक्त है इसलिए कोई दोष नही है । अर्थात् उपमेय के जो तीन विशेषण दिये ग है उनको उपमान पक्ष मे भी लगाने का प्रयास किया जाता तव तो इसका समाधान हो सकता है। परन्तु ग्रन्थकार उस मार्ग का अवलम्बन न करके कुछ और ही बात कह रहे है । यह तो 'माम्रान्