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सूत्र ३] चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [१६१
तस्या उपमाया द्वैविध्य, पदवाक्यार्थवृत्तिभेदात् । एका पदार्थवृत्तिः, अन्या वाक्यावृत्तिरिति । पदार्थवृत्चिर्यथा
हरिततनुषु बभ्रुत्वग्विमुक्तासु यासां
कनककणसधर्मा मान्मथो रोमभेदः ॥५॥ वाक्यार्थवृत्तिर्यथापाण्ड्योऽयमंसार्पितलम्बहारः क्लृप्ताङ्गरागो हरिचन्दनेन । आभाति बालातपरक्तसानुः सनिझरोद्गार इवाद्रिरानः ॥६॥३॥
उस उपमा के दो प्रकार होते है । पद [पदार्थ ] और वाक्य के अर्थ में रहने के भेद से [अर्थात् ] एक पदार्थ में रहने वाली [पदार्थवृत्ति ] और दूसरी वाक्यार्थ में रहने वाली [ वाक्यार्थवृत्ति ] होती है । [ उनमें से ] पदार्थवृत्ति [उपमा का उदाहरण ] जैसे [ निम्न लिखित श्लोक में है]
जिनका मटली खाल से रहित हरित देहों पर स्वर्णकण के समान मन्मय सम्बन्धी रोमाञ्च [ रोमभेद दिखाई देता ] है ॥५॥
वाक्यार्थ वृत्ति [ उपमा का उदाहरण ] जैसे
कन्धे पर लम्बा हार धारण किए और लाल चन्दन का अङ्गराग लगाए यह पाण्डय [ देश का राना] प्रांत कालीन [ लाल-लाल ] बालातप से रक्त शिखर वाले और झरने के प्रवाह से युक्त पर्वतराज के समान सुशोभित हो
इस उदाहरण में पाण्डव देश के राजा की उपमा कालिदास ने अद्रिराज से दी है । परन्तु वह केवल पाण्ड्य और अद्विराज का ही उपमेय उपमान भाव नहीं है, अपितु पाण्डय के साथ 'प्रसार्पितलम्बहार' और 'हरिचन्दनेन क्लृप्ताड्राग.' यह दो विशेषण जुड़े हुए है । इसलिए उसके साम्य को पूर्ण करने के लिए प्रद्रिराज रूप उपमान में भी 'बालातपरक्तसानु' और 'सनि:रोद्गार' यह दो विशेषण जोडे गए हैं । अन्यथा उन दोनो का उपमानोपमेय भाव अपूर्ण ही रहता । इस प्रकार अनेक पदो में व्याप्त अनेक पदो में पूर्ण होने के कारण 'वाक्यार्थवृत्ति' उपमा कहलाती है । इसके विपरीत प्रथम उदाहरण में उपमा का सम्बन्ध इतना व्यापक नहीं है । वह केवल कनककणसधर्मा रोमभेद.' में समाप्त . हो गई है । इसलिए वह वाक्यार्थवृत्ति नही अपितु पदार्थवृत्ति' उपमा का उदाहरण है । यद्यपि उपमा में उपमान, उपमेय, सादृश्य और उपमा वाचक इवादि पदो की स्थिति आवश्यक होने से उसका सम्बन्ध अनेक पदो से होता