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१७८ काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र ननु च 'शेषोऽनुप्रासः' इत्येतावदेव सूत्रं कस्मान्न कृतम् । आवृत्तिशेषोऽनुप्रास इत्येव हि व्याख्यास्यते ।
सत्यम् । सिद्धत्येवा वृत्तिशेषे कि त्वव्याप्तिप्रसङ्गः। विशेषार्थ च सरूप-ग्रहणम । कास्न्येनैवावृनिः कात्स्न्यैकदेशाभ्यां तु सारूप्यमिति ||८|| प्रेत ] है । [ इस प्रकार जो शेष ] सरूप [ अर्थात् ] अन्य प्रयुक्त [ हुए पद] के तुल्य रूप [ पद को ] अनुप्रास कहा जाता है। [अर्थात् एकार्य अथवा अनेकार्थ स्थानानियत पद के अन्य प्रयुक्त हुए पद के साथ सावृश्य अथवा प्रावृत्ति को 'अनुप्रास' कहते है। यह 'अनुप्रास' का लक्षण हुआ |
[प्रश्न ] 'शेषोऽनुप्रासः' इतना ही सूत्र क्यों नहीं बनाया। [ यमक से भिन्न ] शेष [अन्य प्रकार की प्रावृत्ति को 'अनुप्रास' कहते है । यह इस प्रकार की उस सूत्र की व्याख्या हो जावेगी।
[उत्तर] भापका कथन ठीक है । प्रावृत्ति शेष अनुप्रास होता है [ यह लक्षण ] बन ही सकता है। किन्तु [ उतना लक्षण रखने से ] अन्याप्ति की सम्भाचना हो सकती है। [इसलिए ] विशेष [ रूप से अव्याप्ति दोष रहित अनुप्रास का लक्षण करने के लिए [ सूत्र में ] 'सरूप पद का ग्रहण किया है। [इस सरूप पद के ग्रहण करने से भेद यह हो जाता है कि यमक में अभिप्रेत प्रावृत्ति स्वरव्यञ्जन संघात की सम्पूर्ण रूप से 'प्रावृत्ति होती है और अनुप्रास में स्वरव्यञ्जन संघात रूप] सम्पूर्ण अथवा एकदेश [ दोनो प्रकार से सारूप्य हो सकता है।
इसका अभिप्राय यह हुआ कि यमक मे पूर्ण रूप से स्वर-व्यञ्जनसङ्घात की आवृत्ति आवश्यक है। परन्तु अनुप्रास मे स्वरभेद होने पर भी केवल व्यञ्जन की भी प्रावृत्ति हो सकती है । यही यमक और अनुप्रास का भेद है । इसी लिए श्री विश्वनाथ ने अपने साहित्यदर्पण मे इन दोनो के लक्षण इस प्रकार किए है -
' सत्यर्थे पृथगाया. स्वरव्यञ्जनसहते. ।
क्रमेण तेनैवावृत्तियंमकं विनिगद्यते ॥ अर्थात् सार्थक होने पर भिन्नार्थक स्वरव्यञ्जनसङ्घात की उसी क्रम से पावृत्ति को 'यमक' कहते है। इसके विपरीत
३ अनुप्रासः शब्दसाम्य वैषम्येऽपि स्वरस्य यत् । स्वर का भेद होने पर शब्द का साम्यमात्र अनुप्रास कहलाता है ॥८॥
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' साहित्यदर्पण १०, ८। २ साहित्यदर्पण १०,७।