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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र । पदमनेकार्थ भिन्नार्थमेकमनेक वा, तद्वदक्षरमावृत्तं स्थाननियमे सति यमकम् । स्वावृत्या सजातीयेन वा कास्न्यैकदेशाभ्यामनेकपादव्याप्तिः स्थाननियम इति ।
अथवा अक्षर कहलावेगा । इस प्रकार पदो अथवा वर्गों की भावृत्ति को 'यमक' कहते है । परन्तु जहा पदो की प्रावृत्ति हो वहा उन दोनो की भिन्नार्थकता अपरिहार्य है । इसलिए साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने यमक का लक्षण करते हुए लिखा है
' सत्यर्थे पृथगाया स्वरव्यञ्जनसहते. ।
क्रमेण तेनैवावृत्तिर्यमक विनिगद्यते ।। 'यमक' के लक्षण मे प्राचीन भामह तथा नवीन विश्वनाथ प्रादि दोनो के लक्षणो से प्रकृत ग्रन्थकार वामन के लक्षण मे यह विशेषता है कि इन्होने अपने लक्ष्य मे स्थान-नियम का विशेष रूप से उल्लेख किया है । और उन स्थानो का विस्तारपूर्वक विवेचन भी किया है । अन्य भामह प्रादि प्राचार्यों ने इस स्थान नियम को स्वय समझ लेने योग्य मान कर न उस का उल्लेख अपने लक्षण मे ही किया है और न उसका अधिक विस्तार ही किया है।
अनेकार्थ अर्थात् भिन्न अर्थ वाला एक पद अथवा अनेक पद, और उसी के समान [ एक अथवा अनेक ] अक्षर स्थान नियम के होने पर प्रावृत्त होने से 'यमक'[नामक शब्दालडार कहलाते है। यमक के प्रयोजक पद की अपनी वृत्ति , उपस्थिति ] से अथवा [ दो भिन्न-भिन्न पदो के अंशो से मिलकर एक पद जैसा प्रतीति होने वाले ] सजातीय के साथ सम्पूर्ण रूप से अथवा एक देश से अनेक पादों में व्याप्ति को स्थान नियम [कहा जाता है। [इसका अभिप्राय यह हुआ कि प्रावृत्त पदो की स्थिति एक पाद में न होकर मुख्यतः अनेक पादो में होनी चाहिए। यह भी वामन का विशेष सिद्धान्त है । परन्तु यदि एकपादस्थ प्रावृत्ति को यमक न माना जाय तो]
' अथ समाववृते कुसुमैर्नवै-स्तमिव सेवितुमेकनराधिपम् ।
यमकुवेरजलेश्वरवविणा समधुर मधुरञ्चितविक्रमम् ।।
' साहित्य-दर्पण १०, । २ रघुवंश ६, २४ ।