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सूत्र १ ]
चतुर्थाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
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सूत्र में दिया हुआ ' अनेकार्थं विशेषरण केवल पद का है अक्षर का नही । क्योकि पद ही अनेकार्थं हो सकता है । यमक पद का अर्थ 'यम्यते गुण्यते श्रावर्त्यते पदमक्षर वेति यम' । बहुल ग्रहरण से कर्म मे 'घ' प्रत्यय करके 'यम' शब्द बना है । उससे स्वार्थ में 'क' प्रत्यय करके 'यम एव यमकम्' इस प्रकार यमक पद की व्युत्पत्ति होती है । जिससे भिन्नार्थक एक अथवा अनेक पदो की प्रावृत्ति का 'यमक' कहते है । इसका अभिप्राय यह हुआ कि यदि एक अथवा अनेक पूरे पदो की प्रावृत्ति होती है तो उन दोनो का अर्थ अवश्य भिन्न होना चाहिए । समानार्थ पदो की श्रावृत्ति इस यमकालङ्कार का विषय नही है । जहां पूर्ण पद की प्रावृत्ति न होकर उसके किसी एक देश की आवृत्ति हो उसको अक्षर की श्रावृत्ति कहा जायगा । यह एकदेश भूत अक्षर सार्थक न होने से अनर्थक हैं इसलिए सूत्र का प्रनेकार्थं विशेषरण इस प्रक्षर प्रवृत्ति के साथ सङ्गत नही होता | केवल पदो के साथ अन्वित होता है ।
भामह ने अपने काव्यालङ्कार मे यमक का लक्षरण इस प्रकार किया है— ' तुल्यश्रुतीना भिन्नानामभिधेयैः परस्परम् । वर्णाना य पुनर्वादो यमक तन्निगद्यते ॥
अर्थात् सुनने मे समान प्रतीत होने वाले और अर्थ से भिन्न वर्गों की पुनरुक्ति या आवृत्ति को 'यमक' कहते है ।
इस लक्षरण मे पदो की आवृत्ति का उल्लेख नही किया है । परन्तु 'भिन्नानामभिधेयं परस्परम्' से पद की प्रतीति हो जाती है । क्योकि केवल वर्णं सार्थक नही होते । पद ही सार्थक होते है । इस प्रकार वर्णो की आवृत्ति में, आवृत्त वर्णों की चार प्रकार की स्थिति होसकती है— १. जहा दोनो सार्थक हो । इस दशा मे दोनो पद होगे और उनको सामानार्थक नही अपितु भिन्नार्थक ही होना चाहिए । २ दूसरी दगा मे दोनो अनर्थक होगे । यह पदो की नही अपितु केवल वर्णों की प्रवृत्ति कहलावेगी । 3 तीसरे रूप में प्रथम श्रश सार्थक और उत्तर भाग अनर्थक हो सकता है । इसमें पहिला सार्थक भाग पद होगा और दूसरा अनर्थक भाग पाश अथवा वर्ण रूप होगा । ४ चौथी स्थिति मे पूर्वभाग अनर्थक और उत्तर भाग सार्थक हो सकता है । इसमे सार्थक उत्तर भाग पद और अनर्थक पूर्वभाग पदाश रूप वर्ण
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भामह काव्यालङ्कार २, १७ ।