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सूत्र १४
तृतीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
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वासनीयो यथाअवहित्थवलितनधनं विवतितामिमुखकुचतट स्थित्वा । अवलोकितोऽहमनया दक्षिणकरकलितहारलतम् ॥ १० ॥
उक्तिवैचित्र्य माधुर्यम् । ३, २, ११ । उक्तवैचित्र्यं यत्तन्माधुर्यमिति । यथा
किलकिञ्चितो [क्रोधाश्रुहर्षभीत्यादेः सङ्करः किलकिञ्चितम् ] के अवसर पर [व्यावर्तमान ] एक दूसरे की ओर घूमते हुए नेत्र वाला [ नायक नायिका का] जोडा शोभित होता है।
इस में नायक नायिका का मिथुन 'पालम्बन विभाव', लीलागृह 'उद्दीपनविभाव', अधरपान, अङ्गभङ्ग, स्मित, कम्प, नयनव्यावर्तन, भ्रू भेदादि 'अनभाव', उल्लसित, उन्मीलित, हर्ष, प्रौत्सुक्यादि, और 'किलकिञ्चित' से पाक्षिप्त क्रोध, शोक, भय, गर्वादि 'सञ्चारीभाव' है । इन 'विभाव', 'अनुभाव' और 'सञ्चारी भाव' के सयोग से 'रति' रूप 'स्थायीभाव' 'साधारणीकरण' की प्रक्रिया से रसिक जनो के चर्वण का विषय बनकर रस पदवी को प्राप्त होता है । यह भावको की अवधान रूप भावना का विषय होने से 'भाव्य' अर्थ का उदाहरण है।
दासनीय [अर्थ का उदाहरण ] जैसे
प्राकार-गोपनपूर्वक ["प्रवहित्था प्राकारगुप्तिः अपनी दोनों ] जवानो ' को मिलाकर, कुचतटों को सामने की ओर करके और दाहिने हाथ से हार-लता को पकड़ कर उस [ नायिका ] ने मुझ को देखा।
इस श्लोक में तुम्हारा सम्भोग दुर्लभ है, मेरा मन तुम्ही में लगा हुआ है, मेरे दुरन्त सन्ताप की शान्ति मे केवल यह हारलता ही दाक्षिण्य का अवलम्बन कर रही है इत्याद रूप नायिका का स्वाभिप्राय प्रकाशन विशेष ध्यान देने से सहृदयो को अनुभव होता है इसलिए यह 'वासनीय सूक्ष्म अर्थ का उदाहरण दिया है ॥ १०॥
छठे अर्थगुण 'माधुर्य' का निरूपण अगले सूत्र में करते है। उक्ति-वैचित्र्य माधुर्य [ कहलाता है। उक्ति का जो वैचित्र्य है वह 'माधुर्य [नामक प्रर्यगुण ] है। जैसे
अमृत [बड़ा] सरस [ सुस्वादु ] है इसमें कोई सन्देह नहीं । शहद भी पौर तरह का[ अस्वादु ] नहीं है [ किन्तु मधुर और सुस्वादु ही है ] ।प्राम का