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काव्यालङ्कारवृत्तौ
विभक्तीनां विभक्तत्वं संख्यायाः कारकस्य च । आवृत्ति: सुप्तिङन्तानां मिथश्च यमकाद्भुतम् ॥ १६ ॥
इसलिए वह प्रावृत्ति दोषयुक्त हो जाय 'दुष्येच्चेत्' तो फिर उस को अनुप्रास का भी उदाहरण नही मानना चाहिए। 'न पुनस्तस्य युक्तानुप्रासकल्पना' । यदि उससे काव्य की शोभा की वृद्धि होती हो तो वह यमक ही हो सकता है । परन्तु जब वह यमकसदृश होने पर भी प्रतिमात्रा में प्रयुक्त होने से दोषाधायक हो गया है, तब वह अनुप्रास रूप अलङ्कार भी नही हो सकता है, यह ग्रन्थकार का अभिप्राय है ।
सुबन्त अथवा तिङन्त [ पदो की ] की अलग-अलग अथवा मिलकर भी [ ऐसी ] श्रावृति जिसमें विभक्तियों, संख्या [ वचन ] और कारको का भेद हो उसको 'यमकाद्भुत' [ श्रथवा 'अद्भुत यमक' अलङ्कार ] कहते है ॥ १६ ॥
इनके क्रम से उदाहरण इस प्रकार हो सकते है -
विश्वप्रमात्रा भवता जगन्ति,
[ सूत्र ७
व्याप्तानि मात्रापि न मुञ्चति त्वाम् ।
विश्व के प्रमाता भ्रापसे सारे जगत् व्याप्त है । उसका कोई भी अश प्राप से रहित नही है । इस उदाहरण में 'विश्वप्रमात्रा' और 'मात्रापि' इन दोनो मे 'मात्रा' इस अश की प्रावृत्ति होने से यह 'यमकाद्भुत' का उदाहरण होता है ।
इसी प्रकार --
एताः सन्नाभयो बाला यासा सन्नाभय. प्रिय I
इस उदाहरण मे 'सन्नाभय' इस पद की प्रवृत्ति है । परन्तु पहली जगह 'एताः सन्नाभयो बाला.' मे 'सन्नाभय' पद बहुवचनान्त 'एताः बाला ' का विशेष है । और दूसरी जगह 'सन्नाभय' पद, एकवचनान्त 'प्रिय' का विशेषरण है । दोनो पदो मे प्रथमा विभक्ति ही होने से यह विभक्ति भेद का नही अपितु सख्याभेद रहते हुए पद की प्रावृत्ति का उदाहरण है । 'सन्नाभय बालाः' मे 'सन्नाभय.' का अर्थ सुन्दर नाभि वाली बालाए है ।
इसी प्रकार -
प्राप्तगुणः प्रभावे, भासतेऽयम् ।
यतस्तत
यतस्ततश्चेतसि