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सूत्र ८] तृतीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [१५१
आश्वपेहि मम शीधुभाननाद् यावदप्रदशनैर्न दश्यसे । चन्द्र महशनमण्डलाङ्कितः खं न यास्यसि हि रोहिणीभयात् ॥
मा भैः शशाङ्क मम शीधुनि नास्ति राहुः खे रोहिणी वसति कातर किं बिभेषि । प्रायो । विदग्धवनितानवसङ्गमेषु पुंसां मनः प्रचलतीति किमत्र चित्रम् ॥. पूर्वस्य श्लोकस्यार्थोऽयोनिः । द्वितीयस्य च छायायोनिरिति ॥८॥
जैसे [प्रागे दिए हुए वो उदाहरणो में से पहिला श्लोक कवि को नूतन कल्पना होने से पहले अर्थात् अयोनि भेव का उदाहरण है और उसके आधार पर लिखा गया दूसरा श्लोक 'अन्यच्छायायोनि' भेव का उदाहरण है।
[शोधुभाजन मदिरा पात्र में प्रतिबिम्बित ] हे चन्द्र ! मेरे इस मदिरा पात्र [ को छोड़ कर यहाँ ] से जल्दी भाग जायो । जब तक [प्रिया का या प्रिय का मुख समझ कर ] मैं तुम्हें अपने दान्तो से काट न लूं [ उसके पहले ही यहां से निकल जानो तो अच्छा है। नहीं तो फिर] मेरे दांतो के चिन्हों से अद्धित होकर [अपनी प्रिया ] रोहिणी [ को यह दन्तक्षत युक्त मुख कैसे दिखानोगे उस ] के भय से [ दुबारा यहां से लौट कर ] आकाश को भी न पा सकोगे।
यह कवि की अपनी अनूठी कल्पना है । इसको 'अयोनि' अर्थ कहते है। इसकी छाया को लेकर दूसरे कवि ने जो दूसरा श्लोक इसी अभिप्राय का लिखा है वह 'अन्यच्छाया' के आधार लिखा जाने से 'अन्यच्छायायोनि' अर्थ का उदाहरण है । जैसे
[मदिरापात्र में प्रतिबिम्बित ] हे चन्द्र ! अब डरो मत मेरी इस मदिरा [ पात्र ] में राहु नहीं बैठा है, और रोहिणी प्राकाश में रहती है [ वह भी मेरे मदिरा पात्र में स्थित तुमको देख नहीं सकती है ] अरे कायर फिर क्यों डरता है । [अथवा] विदग्ध [ रतिकेलि-चतुर प्रौढा] वनिताओं के साथ [रतिकालीन ] नव सङ्गमो के अवसर पर पुरुषो का मन चञ्चल [ भयभीत ] हो जाता है [ इसलिए तुम्हारे । इस [ डरने ] में क्या प्राश्चर्य की बात है।
[इन दोनों श्लोको में से ] पहले श्लोक का अर्य [ कवि को स्वयं अनूठी