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________________ सूत्र २४ ] तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः [ १३३ नीति जनस्य वर्णभावना भवति तद्विकटत्वम् । लीलायमानत्वमित्यर्थः । यथा न पुनः- म्व चरणविनिविष्टैनू पुरैर्नर्तकीनां मणिति रणितमासीत् तत्र चित्र कलञ्च ॥ - चरणकमललग्नैन पुरैर्नर्तकीनां झटिति रणितमासीन्मज्जु चित्रव्च तत्र ॥ २३ ॥ अर्थव्यक्तिहेतुत्वमर्थव्यक्तिः । ३, १, २४ । है । जिसके होने पर [ रचना के ] पद नाच से रहे है इस प्रकार की वर्णों के विषय में [ श्रोता ] लोगो की भावना होती है वह 'विकटत्व' [ कहलाता ] है । [ अर्थात् वर्णों का नृत्य के समान ] लीलायमानत्व [ हो विकटत्व अथवा उदारता है ] यह अर्थ हुआ । [ उसका उदाहरण ] जैसे वहाँ नर्तकियों के अपने पैरो में पहिने हुए नूपुरो का विचित्र और सुन्दर शब्द होने लगा । इस श्लोक के पढते समय उसके पद नाचते हुए से प्रतीत होते है । नाचने में जैसे जैसे उतार-चढाव की विशेष प्रकार की गति होती है इसी प्रकार यहाँ झटिति रणितमासीत् तत्र चित्र कलञ्च' आदि पदो को पढते समय विशेष प्रकार की गति प्रतीत होती है। इस लिए यह विकटत्व' अथवा 'उदारता' का उदाहरण है । [ परन्तु यदि इस श्लोक के पदो में परिवर्तन नीचे लिखे प्रकार से कर दिया जाय तो ] फिर [ वह गुण ] नहीं रहेगा । [ जैसे ] - नर्तकियो के चरण कमलो में पहिने हुए [ लग्न ] नूपुरो ने वहाँ विचित्र और सुन्दर शब्द किया । श्लोक के इन दोनो चरणो के ऊपर दिए हुए दोनो पाठो को पढते समय उनके उच्चारण में स्पष्ट रूप से अन्तर प्रतीत होता है। उससे ही पदो के 'विकटत्व' अथवा 'उदारता' गुण का स्वरूप निर्णय हो जाता है ||२३|| अगले सूत्र में 'अर्थव्यक्ति' रूप नवम गुरण का निरूपण करते है - अर्थ की [ स्पष्ट और तुरन्त ] प्रतीति का हेतुभूत [ शब्द गुण ] श्रर्थव्यक्ति' [ नाम से कहा जाता ] है ।
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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