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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र २२–२३
अजरठत्वं सौकुमार्यम् । ३, १, २२ । बन्धस्याजरठत्वमपारुष्यं यत् तत् सौकुमार्यम् । पूर्वोक्तमुद्राहरणम् । विपर्ययस्तु यथा
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निदानं निद्वैतं प्रियजन सहक्त्वव्यवसितिः । सुधासे कप्लोषौ फलमपि विरुद्ध मम हृदि ॥ २२ ॥
विकटत्वमुदारता । ३,१, २३ ।
बन्धस्य विकटत्वं यदसावुदारता । यस्मिन् सति नृत्यन्तीव पदा
सप्तम गुण 'सौकुमार्य' का निरूपण करने के लिए अगला सूत्र लिखते है
[ बन्ध की ] अकठोरता सौकुमार्य [ कहलाती ] है ।
ara [ रचना शैली ] का अजरठत्व [ अर्थात् ] अपारुष्य [ कठोरता का प्रभाव ] जो है वह 'सौकुमार्य' [ गुण कहलाता ] है । [ इसका भी ] पूर्वोक्त [ 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' प्रादि श्लोक ही ] उदाहरण है । [ उसका विपर्यय ] प्रत्युदाहरणं तो जैसे [ निम्न श्लोक है ]
[ वियोगावस्था में ] प्रिय जन [ प्रियतमा या प्रियतम श्रादि के मुख, नेत्र, केश आदि ] के सादृश्य की [ चन्द्रमा, कमल, मयूरपिच्छ प्रादि में ] स्थिति ही निश्चित [ निद्वैतं असन्दिग्ध ] रूप से उसकी स्मृति और वियोग के उद्दीपन का निदानम् ] कारण है । और [ उसकी स्मृति से ] सुधा सिञ्चन [ तथा वियोग से हृदय का प्लोष अर्थात् ] और बाह रूप विरुद्ध [ दो प्रकार के ] फल भी मेरे हृदय में उत्पन्न होते है । [ श्रर्थात् चन्द्रमा कमल श्रादि को देख कर सादृश्यवश प्रियतमा के सुख प्रादि की स्मृति हो आती है उससे हृदय में आनन्द का सञ्चार होता है । परन्तु उसके साथ ही उसका वियोग हृदय को और अधिक जलाने लगता है ] 1
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इस पद्य की रचना में 'सौकुमार्य' नही अपितु 'पारुष्य' है । अतएव यह 'सौकुमार्य' गुरण का उदाहरण नही अपितु प्रत्युदाहरण है ॥ २२ ॥
नाठवें 'उदारता' नामक गुण का लक्षण अगले सूत्र में करते है[ रचना शैली की ] 'विकटता', 'उदारता' [ कहलाती ] है । रचनाशैली [ बन्ध ] को जो 'विकटता' है वह 'उदारता' [ कहलाती ]