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सूत्र २१] तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः [१४३
पृथक्पदत्वं माधुर्यम् । ३, १, २१ । बन्धस्य पृथक्पदत्वं यत् तन्माधुर्यम् । पृथक् पदानि यस्य सः पृथक्पदः, तस्य भावः पृथक्पदत्वम् । समासदैयनिवृत्तिपरं चैतत् । पूर्वोक्तमुदाहरणम् । विपर्ययस्तु यथा
चलितशबरसेनादत्तगोशृङ्गचण्डध्वनिचकितवराहव्याकुला विन्ध्यपादाः ॥ २१ ॥
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सकता है। उसे आप काव्य-गुणो में क्यों गिना रहे है । इसका खण्डन करने के लिए वृत्तिकार कहते है कि उस प्रारोह या अवरोह को] पाठ का धर्म नहीं कहा जा सकता है यह बात [हम इस अध्याय के अन्तिम सूत्र] 'न पाठधर्माः सर्वत्रादृष्टेः' इस सूत्र में कहेंगे।
यहा समाधि गुण को अलग सिद्ध करने का बहुत प्रयास ग्रन्थकार ने किया है परन्तु वह पूर्णतया सफल नही हुआ है । इसी लिए अन्य लोग इसको अलग गुण नही मानते है ॥ २० ॥
'माधुर्य रूप चतुर्थ गुण के निरूपण के लिए ग्रन्थकार अगला सूत्र लिखते है
[रचना के ] पदो को पृथक्ता [ अर्थात् समासरहित पदों के प्रयोग] को माधुर्य [ गुण ] कहते हैं।
बन्ध [ अर्थात् रचना ] का जो पृथक्पदत्व है वह माधुर्य कहलाता है। जिसके पद पृथक् [अलग-अलग असमस्त ] है वह [बन्ध ] पृथक्पवः [बन्धः] हुआ और उसका भाव पृथक्पदत्व [कहलाता है । यह समास की दीर्घता का निषेध करने वाला है । [ इस माधुर्य गुण का] पूर्वोक्त ['प्रस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' आदि श्लोक ही ] उदाहरण है। [ उसका विपर्यय ] प्रत्युदाहरण जैसे [ निम्न लिखित वाक्य ]
चलती हुई शबरसेना के बजाए हुए तुरही [ गोशृङ्ग नामक वाद्य ] की भयकर ध्वनि से चकित वराहो से व्याप्त [ व्याकुल ] विन्ध्याचल की तलहटी है।
यहा 'चलित' से लेकर 'व्याकुला' तक एक लम्बा समस्त पद विशेषण रूप में दिया हुआ है । इसलिए यहा पृथक्पदत्व रूप 'माधुर्य' गुण नही है । इसलि यह प्रत्युदाहरण हुमा ॥ २१ ॥