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सूत्र ७-६] तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः [ १२१
गुणः सम्प्लवात् । ३, १, ७ । गुणः प्रसादः । श्रोजसा सह सम्प्लवात् ॥ ७ ॥
न शुद्धः । ३, १, ८।
शुद्धस्तु दोष एवेति ॥८॥ ननु विरुद्धयोरोनःप्रसादयोः कथं सम्प्लव इत्याह
स त्वनुभवसिद्धः । ३, १, ६ । स तु सम्प्लवस्त्वनुभवसिद्धः । तद्विदां रत्नादिविशेषवत् । अत्र श्लोकः
[रचना शैथिल्य रूप ] 'प्रसाद' गुण है [ोज के साथ ] मिश्रित होने से।
'प्रसाद' गुण [ही ] है । भोज के साथ मिश्रण [सम्प्लव ] होने से । [अर्थात जहा 'प्रोज' और 'प्रसाद' दोनो मिले जुलं रहते है वहाँ 'प्रसाद' गुण होता है। और जहां प्रोन से सर्वथा रहिन एक दम बन्ध-शैथिल्य होता है वह शुद्ध शैथिल्य गुण नहीं है। यही बात अगले सूत्र में कहते है ] ॥७॥
शुद्ध [ प्रोन से विहीन केवल बन्ध-शैथिल्य रूप प्रसाद ] तो गुण नहीं [अपितु दोष हो ] है।
[बन्धगाढ़त्व रूप भोज से सर्वथा विहीन ] शुद्ध [वन्ध-शैथिल्य ] तो दोष ही है । [ उसे हम गुण नहीं कहते है ] ॥८॥
[ इस पर फिर प्रश्न उत्पन्न होता ह कि ] विरुद्ध स्वभाव वाले प्रोन और प्रसाद का सम्प्लव [अर्थात् मिश्रण ] कैसे हो सकता है ? इस [शद्वा] का समाधान करने ] के लिए कहते है
वह [ बन्धगाढ़ता रूप भोज तथा बन्ध-शथिल्य रूप प्रसाद का सम्प्लव अर्थात् मिश्रण ] तो [ सहृदय विद्वानों के अनुभव [ से ] सिद्ध है।
वह [गाढ़बन्ध रूप प्रोज तथा वन्धर्शथिल्य रूप प्रसाद का] सम्प्लव [मिश्रण ] तो उसको समझ सकने वालो [ सहृदय विद्वानो] को उसी प्रकार अनुभवसिद्ध है जिस प्रकार रत्लो को विशेषता [ रत्नो को पहिचानने वाले कुशल ] जौहरियों को [अनुभव सिद्ध होती है । इस विषय में निम्नलिखित] श्लोक भी है