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न पुनः,
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
विलुलितमकरन्दा मञ्जरी र्नर्तयन्ति ।
विलुलितमधुधारा मञ्जरीर्लोलयन्ति ॥ ५ ॥ शैथिल्य प्रसादः । ३, १, ६ ।
बन्धस्य शैथिल्यं शिथिलत्वं प्रसादः ॥ ६ ॥ नन्वयमोनो विपर्ययात्मा दोषस्तत् कथं गुण इत्याह
[ सूत्र ६
है । सयुक्त अक्षरो और रेफशिरस्क वर्गों के प्रथम द्वितीय, अथवा प्रथम-तृतीय श्रथवा तृतीय- चतुर्थ वर्णों के सयोग होने पर बन्ध की गाढ़ता अथवा श्रोज गुण माना जाता है ] जैसे
मकरन्द को कम्पित करते हुए [ भौरे प्रास्त्र आदि को ] मञ्जरियो को
नचाते है ।
[ यहा 'मकरन्द' और 'मञ्जरीर्तर्तयन्ति' में बन्ध की गाढ़ता होने से श्रोज गुण माना है ] ।
परन्तु यहां [ नीचे के उदाहरण में, प्रोज गुण ] नही हैमधुधारा को कम्पित करते हुए मञ्जरियो को हिलाते है ।
[ यहां 'मकरन्द' के स्थान पर 'मधुधारा' 'मञ्जरीर्नर्तयन्ति' की जगह 'मञ्जरीर्लोलयन्ति' कर देने से बन्ध की गाढता समाप्त होकर शैथिल्य श्राजीता है । इसलिए इस परिवर्तन के कर देने पर रचना में प्रोज नहीं रहता है । अतः यह प्रत्युदाहरण दिया है ] ॥ ५ ॥
अगले सूत्र मे दूसरे गुरण 'प्रसाद' का लक्षण करते है
[ रचना के ] शैथिल्य [ का नाम ] प्रसाद [ गुण ] है |
बन्ध [ रचना ] के शैथिल्य अर्थात् शिथिलत्व [ का नाम ] प्रसाद है ॥ ६ ॥
यहा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि 'प्रसाद' को गुण कँसे माना गया है क्योकि 'बन्धगाढत्व रूप' 'भोज' के प्रभाव का नाम बन्ध-शैथिल्य या 'प्रसाद'
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होता है । अर्थात् बन्धगाढस्व रूप श्रोज का विरोधी होने से 'बन्ध-शैथिल्य' रूप 'प्रसाद' को काव्य का दोष मानना चाहिए, उसको गुरण कैसे कहते है ? इसका उत्तर देने के लिए ग्रन्थकार अगले चार सूत्रो का प्रकरण प्रारम्भ करते है । [ प्रश्न ] यह 'नोज' का विपर्यय रूप [शैथिल्य तो काव्य का ] दोष है व गुग कैसे हो सकता है । इस [ प्रश्न ] का उत्तर देने के लिए कहते है -